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मैनपुरी का नगला बील, सपेरा समुदाय का अनोखा 'सुप्रीम कोर्ट', जहां बिना डिग्री के होता है न्याय

 

आम तौर पर जब 'सुप्रीम कोर्ट' शब्द सुनाई देता है तो लोगों के ज़हन में काले कोट पहने जज, कानूनी बहसें और मोटी-मोटी कानून की किताबें नजर आती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले की किशनी तहसील के एक छोटे से गांव नगला बील में स्थित है एक ऐसा 'सुप्रीम कोर्ट', जो न तो सरकारी है और न ही किसी संविधान की धारा के अधीन – मगर इसके फैसले पूरे देश के सपेरा समुदाय के लिए आखिरी और मान्य होते हैं।

सपेरा समुदाय का आध्यात्मिक और सामाजिक केंद्र

नगला बील गांव देशभर के सपेरा समुदाय के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थल जैसा है। यह गांव भले ही आम लोगों के लिए अनजान हो, लेकिन सपेरों के बीच इसकी पहचान बेहद खास और प्रतिष्ठित है। यहां हर साल देश के अलग-अलग राज्यों से हजारों सपेरे जुटते हैं और अपने विवादों को इस विशेष न्याय पंचायत के सामने रखते हैं।

न वकील, न डिग्री – फिर भी फैसले स्वीकार्य

यहां का 'सुप्रीम कोर्ट' नाम मात्र का नहीं है, बल्कि इसका संरचनात्मक और सामाजिक प्रभाव पूरे समुदाय में गहराई से फैला हुआ है। इस अदालत के मुख्य न्यायाधीश और सदस्य कोई कानूनी डिग्रीधारी नहीं होते, बल्कि ये सामान्य रूप से शिक्षित, अनुभव-संपन्न और सम्मानित बुजुर्ग होते हैं। उनकी सबसे बड़ी पूंजी है – समाज का भरोसा और पीढ़ियों से चली आ रही परंपराएं

कैसे होता है न्याय?

सपेरा समुदाय से जुड़े किसी भी विवाद, चाहे वह वैवाहिक विवाद हो, जमीन-जायदाद का मसला या सामाजिक बहिष्कार का मामला, उसे लेकर लोग नगला बील के 'सुप्रीम कोर्ट' पहुंचते हैं। यहां पारंपरिक तरीके से सुनवाई की जाती है, दोनों पक्षों को बोलने का मौका दिया जाता है और फिर बुजुर्ग मिलकर सामूहिक रूप से फैसला सुनाते हैं।

इन फैसलों को पूरे देश के सपेरा समुदाय में लागू किया जाता है। जो भी व्यक्ति या परिवार इस फैसले को नहीं मानता, उसे सामाजिक बहिष्कार जैसी कठोर सजा भी दी जाती है।

वर्षों पुरानी परंपरा

बताया जाता है कि यह अदालत सैकड़ों वर्षों से कार्यरत है। पहले यह परंपरा केवल मैनपुरी और आसपास के क्षेत्रों तक सीमित थी, लेकिन अब मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, बिहार और बंगाल जैसे राज्यों से भी लोग यहां न्याय के लिए आते हैं।

प्रशासन की दृष्टि में

स्थानीय प्रशासन इस परंपरा को सामाजिक न्याय और सामूहिक चेतना का बेहतरीन उदाहरण मानता है, जब तक यह भारतीय कानून के दायरे के भीतर रहती है। कई बार जिला प्रशासन ने इस समुदाय की सुलह-सफाई की शैली को सराहा भी है, क्योंकि यह जटिल कानूनी प्रक्रिया से बचाते हुए आपसी सहमति से विवादों का हल निकालती है।