क्या आप जानते है कब और कैसे बना Ranthambore Tiger Reserve ? इस वायरल डॉक्यूमेंट्री में देखे बाघों की इस धरती का पूरा इतिहास
भारत की पहचान आज न सिर्फ़ उसकी संस्कृति और धरोहर से होती है, बल्कि यहां की समृद्ध जैवविविधता भी इसे दुनिया में खास स्थान दिलाती है। राजस्थान का रणथंभौर टाइगर रिज़र्व (Ranthambore Tiger Reserve) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। बाघों की धरती कहे जाने वाले रणथंभौर का इतिहास बेहद रोचक और गौरवशाली है। यहाँ हर साल लाखों पर्यटक देश-विदेश से केवल एक झलक पाने आते हैं—‘भारत के राष्ट्रीय पशु’ बाघ की। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रणथंभौर आखिर कब और कैसे एक टाइगर रिज़र्व बना? आइए इसके इतिहास और विकास की कहानी पर नज़र डालते हैं।
रणथंभौर का शुरुआती इतिहास
रणथंभौर का नाम यहां स्थित ऐतिहासिक रणथंभौर किले से पड़ा, जो 10वीं सदी में बनाया गया था। यह क्षेत्र अरावली और विंध्य पर्वतमालाओं के संगम पर स्थित है और प्राकृतिक दृष्टि से बेहद समृद्ध माना जाता है। घने जंगल, नदियाँ और झीलें इसे वन्यजीवों के लिए उपयुक्त निवास स्थान बनाते हैं।मध्यकालीन इतिहास में यह इलाका राजपूत शासकों और मुगलों के बीच संघर्ष का केंद्र रहा। बाद में यह क्षेत्र जयपुर राज्य के अधीन आ गया। उस समय शाही परिवार और अंग्रेज़ अफसर यहाँ शिकार के लिए आते थे। शेर और बाघों के शिकार की परंपरा ने यहाँ की बाघों की संख्या पर गहरा असर डाला।
संरक्षित क्षेत्र के रूप में शुरुआत
1955 में भारत सरकार ने इसे रणथंभौर वाइल्डलाइफ़ सेंचुरी घोषित किया। उस समय तक बाघों की संख्या में लगातार कमी आने लगी थी। सरकार और वन्यजीव प्रेमियों ने महसूस किया कि यदि संरक्षण नहीं किया गया तो बाघों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।
‘प्रोजेक्ट टाइगर’ और रणथंभौर की अहमियत
1973 में भारत सरकार ने बाघों की घटती आबादी को बचाने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाया और लॉन्च किया ‘प्रोजेक्ट टाइगर’। इस योजना के तहत पूरे देश में कुछ प्रमुख संरक्षित क्षेत्रों को टाइगर रिज़र्व घोषित किया गया। रणथंभौर को 1973 में ही इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनाया गया और इसे टाइगर रिज़र्व का दर्जा मिला।यह कदम बेहद अहम साबित हुआ क्योंकि रणथंभौर का भौगोलिक और पारिस्थितिकी तंत्र बाघों के प्रजनन और संरक्षण के लिए सबसे उपयुक्त माना गया। यहाँ की झीलें – पद्म तालाब, राजबाग और मलिक तालाब – बाघों को शिकार और पानी दोनों उपलब्ध कराती हैं।
राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा
1980 में रणथंभौर को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। उस समय इसका क्षेत्रफल लगभग 392 वर्ग किलोमीटर था। बाद में 1991 में इसे और विस्तारित किया गया और समीपवर्ती केलादेवी वाइल्डलाइफ़ सेंचुरी और सवाई मानसिंह सेंचुरी को भी इसमें शामिल किया गया। आज रणथंभौर टाइगर रिज़र्व का कुल क्षेत्रफल लगभग 1334 वर्ग किलोमीटर है।
रणथंभौर की पहचान
रणथंभौर को सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1990 के दशक में मिली, जब यहाँ बाघों की फोटोग्राफी और डॉक्यूमेंट्री बनना शुरू हुई। यहाँ के बाघों की तस्वीरें और उनकी जीवनशैली ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा।‘मछली’ (Machhli) नाम की बाघिन को तो पूरे एशिया का सबसे मशहूर टाइगर माना जाता है। रणथंभौर की यह बाघिन अपनी शिकार करने की अनोखी शैली और लंबे समय तक जीवित रहने की वजह से विश्वभर में चर्चित रही।
स्थानीय समुदाय और पर्यटन
रणथंभौर का इतिहास केवल बाघों तक सीमित नहीं है। यहाँ के स्थानीय समुदाय, विशेषकर आसपास के गाँवों के लोग, भी इस टाइगर रिज़र्व से गहराई से जुड़े हुए हैं। सरकार और गैर-सरकारी संस्थाओं ने मिलकर ग्रामीणों को इस क्षेत्र की सुरक्षा और पर्यटन से जोड़ने का काम किया।आज रणथंभौर में सफारी के ज़रिए हर साल लाखों सैलानी आते हैं, जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है। यह न सिर्फ बाघों के संरक्षण में मदद करता है बल्कि पर्यटन से जुड़ी अर्थव्यवस्था को भी मज़बूती देता है।
बाघ संरक्षण की चुनौतियाँ
हालांकि रणथंभौर ने बाघ संरक्षण की दिशा में बड़ी सफलता पाई है, लेकिन चुनौतियाँ आज भी बरकरार हैं। शिकार, जंगलों में अतिक्रमण, और मानव-वन्यजीव संघर्ष अभी भी बड़े मुद्दे हैं। इसके बावजूद, रणथंभौर टाइगर रिज़र्व लगातार भारत में बाघों की सुरक्षित संख्या बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रहा है।