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CBSE और राज्य शासन के नियमों में टकराव से अभिभावक परेशान, पहली कक्षा में प्रवेश का मामला हाई कोर्ट पहुंचा

 

मध्य प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश को लेकर एक नई पेचीदगी सामने आई है। राज्य शासन और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) के बीच पहली कक्षा में प्रवेश के लिए निर्धारित उम्र सीमा को लेकर अलग-अलग नियमों ने अभिभावकों की चिंता बढ़ा दी है। यह विवाद अब मध्य प्रदेश हाई कोर्ट तक पहुंच गया है, जहां कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए सभी संबंधित पक्षों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।

क्या है विवाद?

मध्य प्रदेश शासन के नियमों के अनुसार, पहली कक्षा में प्रवेश के लिए बच्चे की न्यूनतम आयु 6 वर्ष होनी चाहिए। यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत लागू किया गया है।
वहीं दूसरी ओर, CBSE से संबद्ध कई स्कूलों में 5 वर्ष की उम्र के बच्चों का भी पहली कक्षा में प्रवेश लिया जा रहा है, जो राज्य शासन के नियमों से मेल नहीं खाता।

इस विरोधाभास के चलते, राज्य के कई CBSE स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के भविष्य पर संकट मंडरा रहा है। कुछ मामलों में तो बच्चों को आगे की कक्षाओं में प्रवेश देने से इनकार कर दिया गया है या दस्तावेज़ी अड़चनें खड़ी हो गई हैं।

कोर्ट में क्या हुआ?

मामला जब हाई कोर्ट पहुंचा, तो कोर्ट ने इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए राज्य सरकार, CBSE और अन्य शिक्षा अधिकारियों को नोटिस जारी किया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि शिक्षा जैसे संवेदनशील विषय में बच्चों और अभिभावकों को भ्रम की स्थिति में नहीं रखा जा सकता।

न्यायालय ने पूछा है कि दोनों नियमों के बीच सामंजस्य क्यों नहीं बैठाया गया और इस द्वंद्व की स्थिति में आखिर कौन-सा नियम लागू होगा?

अभिभावकों की चिंता

इस नियमों के टकराव से अभिभावक असमंजस में हैं। उनका कहना है कि उन्होंने CBSE के नियमों के अनुसार बच्चों का दाखिला कराया, लेकिन अब राज्य सरकार के नियमों के कारण उनका दाखिला अवैध ठहराया जा सकता है।

एक अभिभावक ने कहा, "हमने बच्चों का भविष्य देखते हुए प्रतिष्ठित स्कूलों में दाखिला लिया, अब हमें बताया जा रहा है कि उम्र कम है। ऐसे में बच्चे का एक साल खराब होने की नौबत आ सकती है।"

समाधान की आवश्यकता

शिक्षाविदों और विशेषज्ञों का मानना है कि यह स्थिति राज्य और केंद्र के बीच समन्वय की कमी को दर्शाती है। प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर नीति में स्पष्टता और एकरूपता बेहद ज़रूरी है। अन्यथा, इसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा, मानसिक स्थिति और अभिभावकों की चिंता पर पड़ता है।