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चुनावी गणित के कारण क्षेत्रीय दलों ने बनाई Congress से दूरी !

 

दिल्ली न्यूज डेस्क !!! राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी खेमे को एक डोर से बांधे रखने के लिए कांग्रेस ने भले ही खुद को लो प्रोफाइल रखा है लेकिन इसके बावजूद कई क्षेत्रीय दल अपने राज्यों के चुनावी समीकरण के कारण इससे दूरी बनाए रखना चाहते हैं। कई क्षेत्रीय दल ऐसे हैं, जो खुद कांग्रेस से अलग होकर बने हैं या कांग्रेस के वोटबैंक पर बैठे हैं। ऐसी स्थिति में वे कांग्रेस को मजबूत करके अपनी कब्र नहीं खोदना चाहते हैं। कांग्रेस के साथ कई गठबंधन विफल हो गए हैं। साल 2017 में भी ऐसा हुआ था जब समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस से हाथ मिलाया था लेकिन भाजपा ने उसे हरा दिया था।

इस पर वरिष्ठ पत्रकार संजीव आचार्य की राय बिल्कुल इतर है। उनका कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उत्तर भारत में पार्टी को कमजोर कर दिया था। इसने उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया और नष्ट हो गया। बाद में पार्टी ने सपा और राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन किया इसलिए ऊंची जातियों ने उससे दूरी बना ली। अब कांग्रेस अनुसूचित जातियों को वोटबैंक बनाने की कवायद में जुटी है।

उनका कहना है कि पचमढ़ी एन्क्लेव में कांग्रेस ने जाति और सांप्रदायिक पार्टियों के साथ नहीं जाने का फैसला किया था, इसलिए उसे निरंतरता बनाए रखनी चाहिए थी। अब कांग्रेस के पास क्षेत्रीय दलों को देने के लिए कुछ नहीं है इसलिए ये दल नहीं चाहते कि कांग्रेस मजबूत हो।

बिहार में मंत्री रह चुके एक कांग्रेसी नेता ने भी यही बात कही कि कांग्रेस के पास क्षेत्रीय दलों को देने के लिए कुछ भी नहीं है क्योंकि वह कमजोर हो गई है। राज्य के चुनावों में उन्हें कांग्रेस की परवाह नहीं है लेकिन संसदीय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला कांग्रेस ही करेगी।

पहले उत्तर भारत में कांग्रेस को इस समस्या से जूझना पड़ा लेकिन अब दक्षिण भारत में भी उसे टीआरएस और वाईएसआरसीपी के उदय के कारण इस स्थिति से गुजरना पड़ रहा है। कांग्रेस के पास तेलंगाना के मुख्यमंत्री जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों का विरोध किए बिना पैठ बनाने की बहुत कम संभावना है।

इसी तरह आंध्र प्रदेश में पार्टी को तेदेपा और अेकेल खड़े होने के बीच चुनाव करना होगा क्योंकि वाईएसआरसीपी के कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की संभावना नहीं है। कांग्रेस तमिलनाडु में द्रमुक के साथ, झारखंड में झामुमो के साथ और महाराष्ट्र में एनसीपी-शिवसेना के साथ गठबंधन में है।

पूर्वोत्तर भारत में या तो भाजपा या क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की जगह ले ली है और असम में एआईयूडीएफ के साथ उसका गठबंधन विफल हो गया है। पश्चिम बंगाल में पार्टी शून्य पर है और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विकल्प के रूप में आने को तैयार नहीं हैं क्योंकि वह खुद क्षेत्रीय दलों का गठबंधन बनाने की कोशिश कर रही हैं।

दिल्ली के बाहर आम आदमी पार्टी के उदय ने एक और समस्या खड़ी कर दी है क्योंकि अब राज्यों में कांग्रेस की जगह क्षेत्रीय दल ले रहे हैं। हाल ही में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले एक नेता ने कहा, असली समस्या क्षेत्रीय दल हैं, जो कांग्रेस के वोटों में सेंध लगा रहे हैं जबकि भाजपा सामाजिक रूप से और सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के माध्यम से अपने वोट आधार को मजबूत कर रही है। हालिया चुनावी जीत में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहां क्षेत्रीय दल कांग्रेस से लोहा ले रहे हैं। कांग्रेस ऐसी 180 लोकसभा सीटों पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है, जहां पार्टी की न्यूनतम उपस्थिति चिंता का कारण बनी हुई है। अपना जनाधार वापस पाने के लिए और राज्यों में एक मजबूत चुनौती बनने के लिए कांग्रेस को गठबंधन का सहारा लेना होगा।

असली परीक्षा इस साल गुजरात और हिमाचल प्रदेश में होगी, जहां आप अपनी पैठ बनाने में लगी है। इसके अलावा कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्य, जहां 2023 में चुनाव होने वाले हैं, कांग्रेस के लिए इम्तिहान की तरह हैं।

ये ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस को बेहतर प्रदर्शन करके खुद को 2024 के संसदीय चुनावों में भाजपा को तगड़ी चुनौती देने के लिए तैयार करना होगा।

--आईएएनएस