क्यों मुर्दे की खोपड़ी में पानी पीते हैं कापालिक? वजह जानकर खड़े हो जाएंगे आपके रोंगटे
साधु—संन्यासी और तपस्वियों की पूूजन पद्धति व उपासनाएं अनेक प्रकार की होती हैं। इन्हीं में एक संप्रदाय कापालिक साधुओं का भी होता है। ये आम लोगों के साथ नहीं रहते और इनकी जिंदगी बहुत रहस्यमय होती है। आपने सुना होगा कि कापालिक साधु मुर्दा इन्सान की खोपड़ी में पानी पीते हैं। यही नहीं, वे इसका इस्तेमाल एक प्लेट के तौर पर करते हैं और उसमें खाना भी खाते हैं। हमारे लिए इसकी कल्पना करना अत्यंत भयानक है, लेकिन कापालिकों के लिए यह रोजमर्रा की जिंदगी है।
कापालिक भगवान शिव में गहरी आस्था रखते हैं। वे शिव को ही इष्ट मानते हैं और उनका पूजन करते हैं। चूंकि शिव भी वैरागी हैं, वे श्मशान में रहते हैं, भस्म रमाते हैं और मोह—माया से दूर रहते हैं। इसी प्रकार कापालिक भी अपना जीवन बिताते हैं। कापालिक को यह नाम क्यों मिला, इसके पीछे कई कथाएं एवं मान्यताएं हैं। कहा जाता है कि जो जीवन—मृत्यु का मोह त्यागकर संसार के कल्याण के लिए निकल जाता है, वही सच्चा कापालिक होता है।
जिस प्रकार शिवजी पूरे संसार का कल्याण करते हैं, स्वयं सुविधाओं से दूर रहकर दूसरों को अपनी प्रिय वस्तु दे देते हैं, उसी प्रकार कापालिक अपना सर्वस्व त्याग देते हैं। वे अपने कपाल पर संसार की पीड़ा लेकर घूमते हैं अर्थात् दूसरों के दुख को अपना दुख मानते हैं। चूंकि मोह—माया से दूर रहने के लिए यह आवश्यक है कि सदैव अपनी मृत्यु को याद रखा जाए। इसलिए वे इन्सान के कपाल के प्याले में ही पानी पीते हैं। वे उसे रोज देखकर यह स्मरण करते हैं कि एक दिन अपना भी यही हश्र होना है, इसलिए अभिमान नहीं करना चाहिए।
अत: कापालिक मृत्यु को सदैव याद रखने के लिए मुर्दे के कपाल को बर्तन के समान इस्तेमाल में लेते हैं। हालांकि इतिहास में एक दौर ऐसा भी आया जब कापालिक के नाम पर पाखंड भी होने लगा। कुछ पाखंडी लोग इसमें प्रवेश कर गए। उन्होंने बिना तपस्या किए ही समाज में अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। सच्चा कापालिक शिव के समान वैरागी होता है। उसे जीवन के अभाव नहीं सताते। वह स्वयं की चिंता में नहीं, बल्कि दूसरों के अभाव दूर करने के लिए चिंतन करता है।
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