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ग्रीन हाउस गैसो के प्रभाव से बदला आर्कटिक महासागर

 

जयपुर।वैज्ञानिको ने इस बात पर शोध करते हुए बताया है कि आर्कटिक महासागर में पिछली सदी में जितना तापमान बढ़ा है,जिससे की आर्कटिक महासागर में लगातार बदलाव देखने को मिल रहा है उसमें मानव के द्वारा किया जाने वाला हस्तक्षेप 50 फीसदी तक जिम्मेदार है।वैज्ञानिको ने मानव हस्तक्षेप का अर्थ ऐसे रयायनों और गैसों के उत्सर्जन को माना है जिससे कि वायु मंडलीय ओजोन परत को कमजोर बनाते है।वैज्ञानिको के अध्ययन में बताया गया है कि रेफ्रिजरेटरो

और एसी आदि कई मानवजनित उपकरणे के कारण होने वाले उत्सर्जन के चलते साल 1955 से साल 2005 के दौरान आर्कटिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा गर्मी देखने को मिली है और इसी के कारण आर्कटिक महासागर का एक बहुत बड़ा क्षेत्र पिघल चुका है। जर्नल नेचर में प्रकाशित अध्ययन में इस बारे में बताया गया है कि यह रसायन क्लोरीन, ब्रोमीन,

फ्लोरीन जैसे हैलोजन तत्वों के बने यौगिको का मिश्रण होते है और ऊपरी वातावरण में मैजूद ओजोन परत की सुरक्षात्मक परत को नष्ट करने के मुख्य कारक बने हुए है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात का जिक्र करते हुए बताया कि गर्मी के लिए कार्बन डाइऑक्साइड को प्रमुख मामना जाता है लेकिन इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि

मानवजनित जीएचजी के उत्सर्जन के कारण भी ओजोन परत को लगातार नुकसान पहुंच रहा है।इस अध्ययन में वैज्ञानिको ने इस बात को भी माना है कि आजोन को कम करने वाले पदार्थो कारण अन्य कारकों की अपेक्षा गर्मी ज्यादा

बढ़ती है। क्योंकि ओजोन परत के नष्ट होने से सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें सीधे पृथ्वी तक पहुंच कर इसके तापमान में कई गुना वृद्धि करती है।

वैज्ञानिको के अध्ययन में बताया गया है कि मानवजनित उपकरणे के कारण होने वाले उत्सर्जन के चलते ओजोन परत को होने वाले नुकसान से आर्कटिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा गर्मी देखने को मिली है और इसी के कारण आर्कटिक महासागर का एक बहुत बड़ा क्षेत्र पिघल चुका है। ग्रीन हाउस गैसो के प्रभाव से बदला आर्कटिक महासागर