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जब गांधी से उलझे पुरुषोत्तम दास टंडन और नेहरु जी से भी बिगड़ गए रिश्ते, जानें क्या था भाषा विवाद का असली कारण ?

 

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे नायक हुए जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इन्हीं में से एक थे राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, जो अपने सादगी भरे जीवन और हिंदी के प्रति अपार प्रेम के लिए जाने जाते हैं। वे न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक समाज सुधारक, पत्रकार और प्रखर वक्ता भी थे। हालाँकि टंडन के महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से अच्छे संबंध थे, लेकिन कई मुद्दों पर उनके इन दोनों नेताओं से गंभीर मतभेद भी थे। आज हम आपको पुरुषोत्तम दास टंडन के जीवन के कुछ ऐसे किस्से बताएंगे, जो आपने शायद ही कभी सुने होंगे।

प्रयागराज के एक खत्री परिवार में जन्म
पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में एक मध्यमवर्गीय खत्री परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी क़ानून की पढ़ाई पूरी की और 1908 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। लेकिन 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी और पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। टंडन को उनकी सादगी और त्याग के लिए 'राजर्षि' (राजा और ऋषि का संगम) की उपाधि दी गई थी। वे हिंदी के प्रबल समर्थक थे और इसे राष्ट्रभाषा बनाने के उनके प्रयास अद्वितीय थे। 1961 में उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' प्रदान किया गया। पुरुषोत्तम दास टंडन एक संत स्वभाव के थे। उनकी लंबी दाढ़ी, सादा खादी का कुर्ता और पुरानी धोती उन्हें आम भारतीय का प्रतिनिधि बनाती थी। उनकी ईमानदारी ऐसी थी कि एक बार जब गेहूँ और चावल की कमी के कारण उनके घर का राशन खत्म हो गया, तो उन्होंने कालाबाजारी से अनाज खरीदने से इनकार कर दिया और मेहमानों को उबले हुए आलू परोसने का आदेश दिया।

स्वतंत्रता संग्राम में टंडन की भूमिका
पुरुषोत्तम दास टंडन 1899 से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए थे। 1905 में बंगाल विभाजन के विरुद्ध आंदोलन में उन्होंने स्वदेशी को अपनाया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। 1919 में, वे जलियाँवाला बाग हत्याकांड की जाँच के लिए गठित कांग्रेस समिति के सदस्य थे। गांधीजी के कहने पर, उन्होंने रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह में भाग लिया और कई बार जेल गए। 1930 में, सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें बस्ती में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने उत्तर प्रदेश में किसानों और मजदूरों को संगठित किया। 1933 में, वे बिहार प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष बने और किसानों के अधिकारों के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व किया। 1937 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत का श्रेय टंडन को दिया जाता है। वे इलाहाबाद से विधायक बने और बाद में विधानसभा अध्यक्ष चुने गए। उनकी कड़ी मेहनत और नेतृत्व ने कांग्रेस को मज़बूत किया।

हिंदी के मुद्दे पर टंडन और गांधीजी में मतभेद
टंडन और गांधीजी के बीच सम्मान और मतभेद का मिश्रण था। गांधीजी उन्हें 'राजर्षि' कहकर उनका सम्मान करते थे। लेकिन दोनों के बीच सबसे बड़ा मतभेद हिंदी बनाम हिंदुस्तानी के मुद्दे पर था। गांधी, नेहरू और राजेंद्र प्रसाद हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू का मिश्रण) को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे, क्योंकि उनका मानना था कि इससे हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन टंडन इसके सख्त खिलाफ थे। उनका मानना था कि केवल हिंदी ही भारत की सांस्कृतिक पहचान का सच्चा प्रतिनिधित्व कर सकती है। 1949 में जब संविधान सभा में राष्ट्रभाषा का प्रश्न उठा, तो टंडन ने हिंदी और देवनागरी लिपि की पुरज़ोर वकालत की। 11-14 दिसंबर 1949 को हुई बहस में हिंदी को 62 और हिंदुस्तानी को 32 वोट मिले। अंततः टंडन की मेहनत रंग लाई और हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला।

नेहरू और टंडन के रिश्ते उतार-चढ़ाव भरे रहे

टंडन और जवाहरलाल नेहरू के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे। नेहरू, टंडन को रूढ़िवादी और सांप्रदायिक मानते थे, खासकर हिंदी के उनके जोशीले समर्थन और देश के विभाजन के विरोध के कारण। 1950 में जब टंडन कांग्रेस अध्यक्ष पद के उम्मीदवार बने, तो नेहरू ने उनका खुलकर विरोध किया। उन्होंने टंडन को एक पत्र लिखकर कहा कि उनका चुनाव देश के लिए हानिकारक होगा। फिर भी, सरदार पटेल के समर्थन से टंडन अध्यक्ष चुने गए। लेकिन नेहरू के दबाव में उन्हें 1951 में इस्तीफा देना पड़ा।

टंडन ने भारत विभाजन का विरोध किया था
पुरुषोत्तम दास टंडन उन गिने-चुने नेताओं में से थे जिन्होंने भारत विभाजन का कड़ा विरोध किया था। 1947 में जब कांग्रेस कार्यसमिति ने माउंटबेटन की विभाजन योजना को स्वीकार किया, तो टंडन ने इसे अंग्रेजों और मुस्लिम लीग के सामने आत्मसमर्पण बताया। उनका मानना था कि अखंड भारत के लिए और संघर्ष किया जाना चाहिए, भले ही इसमें समय लगे। उन्होंने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दिवस के जश्न में भी हिस्सा नहीं लिया, क्योंकि विभाजन का दुःख उन्हें सता रहा था। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना जीवन देश और हिंदी की सेवा में समर्पित कर दिया।