वीडियो में देखें वाजपेयी को भारत के राष्ट्रपति पद का प्रस्ताव मिला था, लेकिन उन्होंने किया मना, ‘अटल संस्मरण’ में खुलासा
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को साल 2002 में देश के राष्ट्रपति पद का प्रस्ताव मिला था, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया। यह खुलासा उनके करीबी और वरिष्ठ भाजपा नेता अशोक टंडन ने अपनी हालिया किताब ‘अटल संस्मरण’ में किया है।
किताब में टंडन ने बताया है कि उस समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने वाजपेयी से कहा था कि पार्टी चाहती है कि वह राष्ट्रपति भवन की ओर बढ़ें। भाजपा के इस प्रस्ताव का आशय यह था कि वाजपेयी प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दें और इसे लाल कृष्ण आडवाणी को सौंप दें, जबकि वे स्वयं राष्ट्रपति बनें।
टंडन के अनुसार, पार्टी ने वाजपेयी से स्पष्ट रूप से कहा था: “पार्टी चाहती है कि आपको राष्ट्रपति भवन चले जाना चाहिए। आप प्रधानमंत्री पद लाल कृष्ण आडवाणी को सौंप दीजिए।” हालांकि, वाजपेयी ने इसे तुरंत खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि वह इस तरह के किसी कदम के पक्ष में नहीं हैं और इस फैसले का समर्थन नहीं करेंगे।
यह खुलासा उस समय के राजनीतिक परिदृश्य को नई रोशनी में पेश करता है। 2002 के आसपास देश में राजनीतिक समीकरण काफी संवेदनशील थे। वाजपेयी का प्रधानमंत्री पद पर होना भाजपा के लिए महत्वपूर्ण था, और उनके नेतृत्व में पार्टी ने कई महत्वपूर्ण नीतिगत फैसले किए। इसी कारण, उनके राष्ट्रपति बनने की संभावना पर विचार किया गया, लेकिन वाजपेयी ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया।
अशोक टंडन की किताब में यह भी वर्णित है कि वाजपेयी का मना करना उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और पार्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। वाजपेयी चाहते थे कि प्रधानमंत्री पद पर स्थिरता बनी रहे और पार्टी नेतृत्व सहज रूप से काम कर सके। उनका यह निर्णय पार्टी के भीतर अनुशासन और नेतृत्व के महत्व को रेखांकित करता है।
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, जो बाद में भारत के 11वें राष्ट्रपति बने, के नाम से तुलना करना भी रोचक है। अगर वाजपेयी ने राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव स्वीकार किया होता, तो देश की राजनीतिक दिशा और इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आता। लेकिन वाजपेयी ने इसे अस्वीकार कर, प्रधानमंत्री पद पर बने रहने का विकल्प चुना, जो उनकी दूरदर्शिता और राष्ट्रीय हित के प्रति उनकी निष्ठा का प्रतीक माना जाता है।
इस तरह का खुलासा राजनीतिक इतिहास के शोधकर्ताओं और भाजपा समर्थकों के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह दिखाता है कि कैसे बड़े नेताओं ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बजाय राष्ट्रीय हित और पार्टी की स्थिरता को प्राथमिकता दी।
अशोक टंडन की ‘अटल संस्मरण’ अब केवल वाजपेयी की राजनीतिक यात्रा का दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह उनके व्यक्तित्व, निर्णय क्षमता और नेतृत्व के अंदाज को भी उजागर करती है। किताब के माध्यम से यह बात साफ हो जाती है कि वाजपेयी ने हमेशा देश और पार्टी के हित को अपने व्यक्तिगत लाभ से ऊपर रखा।