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परमवीर अरुण : बहादुरी ऐसी कि दुश्मन देश ने भी सराहा, पाकिस्तान के 10 पैटन टैंकों को किया तबाह

 

नई दिल्ली, 15 दिसंबर (आईएएनएस)। भारतीय सेना के इतिहास में एक नाम सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का है, जो मात्र 21 साल की उम्र में देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर अमर हो गए। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में बसंतर की लड़ाई में उनकी वीरता ने न केवल दुश्मन को करारी शिकस्त दी, बल्कि उन्हें भारत का सर्वोच्च युद्धकालीन सम्मान, परमवीर चक्र, दिलाया।

अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर 1950 को पुणे, महाराष्ट्र में हुआ था। उनका परिवार पीढ़ियों से सेना से जुड़ा रहा है। उनके परदादा सिख खालसा सेना में थे और चिलियनवाला की लड़ाई में ब्रिटिशों से लड़े। दादा ने प्रथम विश्व युद्ध में तुर्कों का मुकाबला किया, जबकि पिता ब्रिगेडियर एम.एल. खेत्रपाल ने द्वितीय विश्व युद्ध और 1965 की लड़ाई लड़ी। बचपन से ही अरुण में देशभक्ति और साहस के संस्कार थे।

उन्होंने लॉरेंस स्कूल, सनावर से पढ़ाई की। नेशनल डिफेंस अकादमी (एनडीए) में चयनित हुए। भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) से प्रशिक्षण पूरा करके 13 जून 1971 को 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट में कमीशंड हुए।

कमीशन के मात्र छह महीने बाद ही 3 दिसंबर 1971 को भारत-पाक युद्ध छिड़ गया। उस समय अरुण अहमदनगर में यंग ऑफिसर्स कोर्स कर रहे थे, लेकिन युद्ध की खबर सुनते ही वे मोर्चे पर पहुंच गए। शकरगढ़ सेक्टर में बसंतर नदी के पास भारतीय सेना ने ब्रिजहेड बनाया था। 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने पैटन टैंकों से लैस अपनी आर्मर्ड रेजिमेंट के साथ जोरदार काउंटर अटैक किया। भारतीय स्थिति नाजुक थी क्योंकि दुश्मन की संख्या और टैंक ज्यादा थे।

'बी' स्क्वॉड्रन के कमांडर ने मदद मांगी। रेडियो पर यह संदेश सुनते ही अरुण खेत्रपाल ने स्वेच्छा से अपनी ट्रूप के साथ आगे बढ़कर मदद की। रास्ते में दुश्मन के मजबूत ठिकानों और रिकॉइललेस गनों से गोलीबारी हो रही थी। अरुण ने बहादुरी से हमला किया, ठिकानों को कुचल दिया और कई दुश्मन सैनिकों को बंदी बनाया। इस दौरान उनकी ट्रूप के एक टैंक का कमांडर शहीद हो गया, लेकिन अरुण नहीं रुके।

फिर पाकिस्तान ने एक पूरी आर्मर्ड स्क्वॉड्रन से हमला किया। केवल तीन भारतीय टैंकों के सामने दुश्मन के कई सारे टैंक थे। भयंकर टैंक युद्ध हुआ। अरुण ने अपने 'फैमागुस्ता' नामक सेंटुरियन टैंक से अकेले 10 पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट कर दिया, जिनमें से चार उन्होंने व्यक्तिगत रूप से तबाह किए। जब उनका टैंक क्षतिग्रस्त हो गया और आग पकड़ ली, तो कमांडर ने उन्हें टैंक छोड़ने का आदेश दिया। लेकिन अरुण ने अपनी पोस्ट नहीं छोड़ी और अंत तक डटे रहे।

इस दौरान दुश्मन की गोलीबारी से उनका टैंक पूरी तरह नष्ट हो गया और अरुण वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी इस वीरता से पाकिस्तानी हमला थम गया और भारतीय सेना की जीत पक्की हुई। इस लड़ाई को 'बैटल ऑफ बसंतर' के नाम से जाना जाता है, जो 1971 युद्ध की सबसे बड़ी टैंक लड़ाइयों में से एक थी। अरुण की शहादत के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

पाकिस्तानी ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नासेर, जिन्होंने अरुण के टैंक पर अंतिम गोला दागा था, बाद में अरुण के पिता से मिले और कहा कि अरुण ने उनकी कई टैंकें नष्ट की थीं। यह सैनिकों के बीच का सम्मान था।

--आईएएनएस

एससीएच/एबीएम