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किसानों को सिर्फ मतदाता नहीं, देश की रीढ़ मानने वाले नेता थे चौधरी चरण सिंह; अन्नदाता को हमेशा सत्ता के केंद्र में दी जगह

 

नई दिल्ली, 22 दिसंबर (आईएएनएस)। ये कहानी देश की मिट्टी से निकले एक ऐसे योद्धा की है, जिन्होंने सत्ता के शिखर को सिर्फ किसानों की आवाज बुलंद करने के लिए छुआ। देश 23 दिसंबर को पूर्व पीएम चौधरी चरण सिंह की जयंती मनाएगा। हर साल 23 दिसंबर की तारीख इसलिए खास है, क्योंकि एक किसान के बेटे ने खेतों से निकलकर उन्हें हक और सम्मान दिलाने का सपना देखा।

चौधरी चरण सिंह की राजनीति किताबी या चकाचौंधी नहीं थी। यह खेतों की गहराई से उपजी थी। आज भी जब कोई किसान अपनी पीड़ा बयां करता है तो उसकी जुबान पर अनायास ही वही पुरानी यादें ताजा होती हैं, क्योंकि चौधरी चरण सिंह ने किसानों को एक मतदाता से ऊपर उठकर देश की रीढ़ माना था। उनका जीवन स्वतंत्रता की लड़ाई और किसान मुक्ति के दोहरे संघर्ष का जीता-जागता प्रमाण था। गांधीजी और दयानंद सरस्वती से प्रेरित होकर जेल गए, वकालत के पेशे को छोड़ा और भूमि सुधारों की नींव रखी, जिससे जमींदारी का बोझ टूटा और किसान को उसकी मिट्टी पर हक मिला।

बाद में वे देश के प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी असली पहचान किसानों से थी। उनकी जयंती को हर साल किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। वे सिर्फ किसानों की बात नहीं करते थे। वे किसानों के मन में बसते थे। वे खेत की धूल और किसान के दुख-सुख पढ़कर निकले नेता थे। विज्ञान और कानून में डिग्री लेने वाला यह युवक जब वकालत छोड़कर किसानों के हक में संघर्ष करता है, तो वह नेता नहीं, किसानों का प्रहरी बन जाता है।

1977 तक जनता ने चौधरी चरण सिंह को आगे बढ़ाया। किसान उनके पीछे दीवार की तरह खड़े रहे। इसकी वजह यह थी कि वे सत्ता में रहे या बाहर, किसानों की आवाज को हमेशा बुलंद करते रहते थे। उन्होंने 28 जुलाई 1979 से लेकर 14 जनवरी 1980 तक प्रधानमंत्री पद संभाला। उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार की दिशा में जितने ठोस कदम उठाए गए, उनकी बुनियाद चौधरी चरण सिंह ने रखी थी। ग्रामीण देनदारों को राहत मिलनी चाहिए, यह सिर्फ विचार नहीं रहा, बल्कि यह 1939 का ऋणमुक्ति विधेयक बनकर दर्ज हुआ। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने जोत सीमा अधिनियम, 1960 लागू कराया, ताकि कुछ हाथों में भूमि की बेहिसाब पकड़ टूटे और गरीब किसान का हक सुरक्षित हो।

चौधरी चरण सिंह भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता का जिस तरह विरोध करते थे, उससे उनकी छवि एक कड़क नेता की थी। वे जनता पार्टी सरकार में गृह मंत्री बने, फिर वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री भी। 28 जुलाई 1979 को वे भारत के प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनके शब्दों में प्रधानमंत्री होना बड़ी बात नहीं, किसान का विश्वास जीतना बड़ी बात है।

उनका ज्ञान किताबों में बंद नहीं था। उन्होंने देश को बताया कि गरीबी कैसे मिटेगी, भूमि बंटवारा क्यों रुके, सहकारी खेती किसान के खिलाफ है और भारतीय अर्थव्यवस्था शहरों में नहीं, खेतों से है। उनके जीवन में विलास नहीं था। एक साधारण नेता का साधारण घर, खाली समय में पढ़ना-लिखना, खाना और जनता की ओर लौट जाना वे जितने तेज दिमाग वाले थे, उतने ही चरित्रवान, निष्ठावान और मानवतावादी थे।

उनकी लोकप्रियता का रहस्य क्या था? शायद यह कि उन्होंने कभी यह नहीं माना कि किसान, मजदूर या ग्रामीण भारत मतदाता हैं। वे उनके प्रतिनिधि थे, उनकी जुबान, उनका कंधा, उनकी आवाज। दिल्ली का किसान घाट आज भी याद दिलाता है कि लोकतंत्र की आत्मा गांवों में बसती है।

इसलिए जब 23 दिसंबर आता है, तो यह खेतों और किसानों के लिए एक त्योहार के रूप में होता है, जिनके लिए चौधरी चरण सिंह ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया। 29 मई 1987 को उनका निधन हो गया था। देश में आज भी जब किसान की आवाज दबाई जाती है तो एक ही आवाज आती है... 'काश! चौधरी साहब होते।'

--आईएएनएस

पीएसके/वीसी