×

Sumitranandan Pant Poetry: देश के महान कवि सुमित्रानंदन पंत की मशहूर कविताएं, जो आज भी है हिंदी साहित्य की जान

 

भारत के प्रसिद्ध कवियों के सूची सुमित्रानंदन पन्त जी का नाम देखने को मिलता है इनके द्वारा लिखे गये कविता हमें अक्सर हिंदी के पुस्तकों में देखने को मिलता है सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म बागेश्वर ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में 20 मई 1900 ई॰ को हुआ था जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था इनके द्वारा लिखे गये कविता काफी प्रसिद्ध होते है सुमित्रानंदन पन्त के कई सारे प्रसिद्ध कवितायेँ मौजूद है जो अक्सर हमें किताबो में देखने को मिलते है, आज पढ़िए उनकी लिखी कुछ चुनिंदा रचनाएं....

याद

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,
मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,
नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!
मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव,
मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद,–मेघों से उमड़ उमड़ कर
भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,
बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को;
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,
अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल!
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर,
भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर!
भीनी भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर
एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!
नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,
पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल,
एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्वल
याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल!
– सुमित्रानंदन पंत

.

खोलो, मुख से घूँघट

खोलो, मुख से घूँघट खोलो,
हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो!
क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन,
अथवा भीतर जीवन-कम्पन?
कल्पना मात्र मृदु देह-लता,
पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता!
है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता,
है दृश्य, दृष्टि पर सके बता!
पट पर पट केवल तम अपार,
पट पर पट खुले, न मिला पार!
सखि, हटा अपरिचय-अंधकार
खोलो रहस्य के मर्म द्वार!
मैं हार गया तह छील-छील,
आँखों से प्रिय छबि लील-लील,
मैं हूँ या तुम? यह कैसा छ्ल!
या हम दोनों, दोनों के बल?
तुम में कवि का मन गया समा,
तुम कवि के मन की हो सुषमा;
हम दो भी हैं या नित्य एक?
तब कोई किसको सके देख?
ओ मौन-चिरन्तन, तम-प्रकाश,
चिर अवचनीय, आश्चर्य-पाश!
तुम अतल गर्त, अविगत, अकूल,
फैली अनन्त में बिना मूल!
अज्ञेय गुह्य अग-जग छाई,
माया, मोहिनि, सँग-सँग आई!
तुम कुहुकिनि, जग की मोह-निशा,
मैं रहूँ सत्य, तुम रहो मृषा!
– सुमित्रानंदन पंत

.


स्त्री

यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर,
दल पर दल खोल हृदय के अस्तर
जब बिठलाती प्रसन्न होकर
वह अमर प्रणय के शतदल पर!
मादकता जग में कहीं अगर, वह नारी अधरों में सुखकर,
क्षण में प्राणों की पीड़ा हर,
नव जीवन का दे सकती वर
वह अधरों पर धर मदिराधर।
यदि कहीं नरक है इस भू पर, तो वह भी नारी के अन्दर,
वासनावर्त में डाल प्रखर
वह अंध गर्त में चिर दुस्तर
नर को ढकेल सकती सत्वर!
– सुमित्रानंदन पंत

.

जीना अपने ही में

जीना अपने ही में
एक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोग
यह मनुज धर्म है
अपने ही में रहना
एक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने में
सबका सहज भला है
जग का प्यार मिले
जन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन को
प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए
ज्ञानी बनकर
मत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्य
प्रथम सत्कर्म कीजिए
– सुमित्रानंदन पंत

.

मज़दूरनी के प्रति

नारी की संज्ञा भुला, नरों के संग बैठ,
चिर जन्म सुहृद सी जन हृदयों में सहज पैठ,
जो बँटा रही तुम जग जीवन का काम काज
तुम प्रिय हो मुझे: न छूती तुमको काम लाज।
सर से आँचल खिसका है,–धूल भरा जूड़ा,–
अधखुला वक्ष,–ढोती तुम सिर पर धर कूड़ा;
हँसती, बतलाती सहोदरा सी जन जन से,
यौवन का स्वास्थ्य झलकता आतप सा तन से।
कुल वधू सुलभ संरक्षणता से हो वंचित,
निज बंधन खो, तुमने स्वतंत्रता की अर्जित।
स्त्री नहीं, बन गई आज मानवी तुम निश्चित,
जिसके प्रिय अंगो को छू अनिलातप पुलकित!
निज द्वन्द्व प्रतिष्ठा भूल जनों के बैठ साथ,
जो बँटा रही तुम काम काज में मधुर हाथ,
तुमने निज तन की तुच्छ कंचुकी को उतार
जग के हित खोल दिए नारी के हृदय द्वार!
– सुमित्रानंदन पन्त