Ramdhari Singh Dinkar Poems: राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की रची गई कुछ सबसे मशहूर कवितायेँ
रामधारी सिंह दिनकर हिंदी के एक प्रमुख कवि, लेखक, निबंधकार और विद्वान् इंसान थे. रामधारी सिंह दिनकर आधुनिक काल के एक श्रेष्ठ वीर रस के कवि व देशभक्त थे. दिनकर जी एक ओजस्वी राष्ट्रीय कवि के रूप में माने जाते हैं. भारतीय स्वतंत्रता अभियान के समय उन्होंने अपनी कविताओं से ही स्वतंत्रता की जंग छेड़ दी थी. रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता के पूर्व एक विरोधी कवि के रूप में पहचाने जाते थे और स्वतंत्रता के बाद वे एक राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये. एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति दिखती हैं, वहीं दूसरी ओर कोमल श्रृंगार रूप की भावनाओं की अभिव्यक्ति मिलती हैं. इनकी इन्ही दो प्रवृतियों का समावेश इनकी उर्वशी और कुरुक्षेत्र नामक कृति में देखने को मिलता हैं. इनकी कृतियों के विषय खण्डकाव्य, निबंध, कविता और समीक्षा रहा हैं.......
गाँधी
देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ।
जडता को तोडने के लिए भूकम्प लाओ।
घुप्प अँधेरे में फिर अपनी मशाल जलाओ।
पूरे पहाड हथेली पर उठाकर पवनकुमार के समान तरजो।
कोई तूफ़ान उठाने को कवि, गरजो, गरजो, गरजो!
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिसने हमें जन्म दिया था।
तब भी हमने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा, गाँधी को नहीं।
वे तूफ़ान और गर्जन के पीछे बसते थे।
सच तो यह है कि अपनी लीला में,
तूफ़ान और गर्जन को शामिल होते देख
वे हँसते थे।
तूफ़ान मोटी नहीं, महीन आवाज़ से उठता है।
वह आवाज़ जो मोम के दीप के समान,
एकान्त में जलती है और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है।
गाँधी तूफ़ान के पिता और बाजों के भी बाज थे,
क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे।
-रामधारी सिंह दिनकर
करघा
हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं,
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी,
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है।
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है,
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।
हर ज़िन्दगी एक सूत है
और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।
इस उलझन का सुलझाना
हमारे लिये मुहाल है।
मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,
वह हर सूत की किस्मत को
पहचानता है।
सूत के टेढ़े या सीधे चलने का
क्या रहस्य है,
बुनकर इसे खूब जानता है।
-रामधारी सिंह दिनकर
आशा का दीपक
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है;थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से;
चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से।
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का;
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही;
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
-रामधारी सिंह दिनकर
गीत-अगीत
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?गाकर गीत विरह की तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता,
देते स्वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।
गा-गाकर बह रही निर्झरी,
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते स्नेह में सनकर।
गूँज रहा शुक का स्वर वन में,
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना , यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से,
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत, कौन सुन्दर है?
-रामधारी सिंह दिनकर