Mirza Ghalib Biography Hindi: सर्वकालिक महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का जीवन परिचय और संघर्ष
उर्दू शायरी में किसी शख्स का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता हैं तो वह हैं मिर्ज़ा ग़ालिब. मिर्ज़ा ग़ालिब मुग़ल शासन के दौरान ग़ज़ल गायक, कवि और शायर हुआ करते थे. उर्दू भाषा के फनकार और शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम आज भी काफी अदब से लिया जाता हैं. उनके दवारा लिखी गई गज़लें और शायरियाँ आज भी युवाओं और प्रेमी जोड़ों को अपनी और आकर्षित करती हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरियाँ बेहद ही आसान और कुछ पंक्तियों में हुआ करती थी. जिसके कारण यह जन-मन में पहुँच गयी. आज हम आपको मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन से जुडी जानकारी और अनछुये पहलू बताएँगे........
| About | Mirza Ghalib |
|---|---|
| नाम | मिर्जा असदुल्ला बेग खान |
| प्रसिद्ध नाम | मिर्ज़ा गालिब |
| जन्म तिथि | 27 दिसंबर 1797 |
| मृत्यु तिथि | 15 फरवरी 1869 |
| उम्र | 71 साल |
| जन्म स्थान | आगरा, उत्तर प्रदेश (भारत) |
| मृत्यु स्थान | दिल्ली भारत |
| नागरिकता | भारतीय |
| धर्म | मुस्लिम |
| पत्नी | उमराव बेगम |
| पेशा | कवि, शायर |
मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib)
मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू और फारसी भाषा के के महान शायर और गायक थे. उन्हें उर्दू भाषा में आज तक का सबसे महान शायर माना जाता हैं. फारसी शब्दों का हिंदी में जुडाव का श्रेय ग़ालिब को ही दिया जाता हैं. इसी कारण उन्हें मीर तकी “मीर” भी कहा जाता रहा हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब के द्वारा लिखी गयी शायरियाँ हिंदी और फारसी भाषा में भी मौजूद हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब ने खुद के लिए लिखा हैं
हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म (Mirza Ghalib Birth)
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसम्बर 1797 को आगरा के काला महल में हुआ था. उनके पिता का नाम मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग खान और माता का नाम इज्ज़त निसा बेगम था. मिर्ज़ा ग़ालिब का असल नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग खान था. उनके पूर्वज भारत में नहीं बल्कि तुर्की में रहा करते थे.
भारत मुगलों के बढते प्रभाव को देखते हुए सन 1750 में इनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान समरकंद छोड़कर भारत में आकर बस गए. मिर्ज़ा ग़ालिब के दादा सैनिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए थे. मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग खान (मिर्ज़ा ग़ालिब के पिता) ने आगरा की इज्ज़त निसा बेगम से निकाह किया और वह ससुर के घर में साथ रहने लग गए. उनके पिता लखनऊ में निजाम के यहाँ काम किया करते थे. मात्र 5 साल की उम्र में साल 1803 में इनके पिता की मृत्यु हो गयी. जिसके बाद कुछ सालों तक मिर्ज़ा अपने चाचा मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान जो की वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे के साथ रहे. लेकिन कुछ समय बाद उनके चाचा की भी मृत्यु हो गयी. छोटे से मिर्ज़ा ग़ालिब का जीवनयापन चाचा की आने वाली पेंशन से होने लगा.
आरंभिक जीवन
वंश परम्परा
ईरान के इतिहास में जमशेद का नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। 'जश्ने-नौरोज़' (नव वर्ष का उत्सव) का आरम्भ इसी ने किया था, जिसे आज भी हमारे देश में पारसी धर्म के लोग मनाते हैं। कहते हैं, इसी ने 'द्राक्षासव' या 'अंगूरी' को जन्म दिया था। फ़ारसी एवं उर्दू काव्य में ‘जामे-जम’ (जो ‘जामे जमशेद’ का संक्षिप्त रूप है)[2] अमर हो गया। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिरा का उपासक था और डटकर पीता और पिलाता था। जमशेद के अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गए थे। इन बाग़ियों का नेता ज़हाक था, जिसने जमशेद को आरे से चिरवा दिया था, पर वह स्वयं भी इतना प्रजा पीड़क निकला कि उसे सिंहासन से उतार दिया गया। इसके बाद जमशेद का पोता 'फरीदूँ' गद्दी पर बैठा, जिसने पहली बार 'अग्नि-मन्दिर' का निर्माण कराया। यही फरीदूँ 'ग़ालिब वंश' का आदि पुरुष था।
फरीदूँ का राज्य उसके तीन बेटों- एरज, तूर और सलम में बँट गया। एरज को ईरान का मध्य भाग, तूर को पूर्वी तथा सलम को पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था, इसीलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे। उन्होंने मिलकर षडयंत्र किया और एरज को मरवा डाला। पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहर ने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गए और वहाँ 'तूरान' नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर वंश और ईरानियों में बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबक ने खुरासान, इराक़ इत्यादि में सैलजूक राज्य की नींव डाली। इस राजवंश में तोग़रल बेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए, जिनके समय में तूसी एवं उमर ख़य्याम के कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकशाह के दो बेटे थे। छोटे का नाम बर्कियारूक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश परम्परा में ग़ालिब हुए। जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ानदान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गए। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे, 'तर्समख़ाँ' जो समरकन्द रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।
दादा और पिता
तर्समख़ाँ के पुत्र क़ौक़न बेग ख़ाँ, शाहआलम के ज़माने में अपने पिता से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए थे। उनकी मातृभाषा तुर्की थी। हिन्दुस्तानी भाषा में बड़ी कठिनाई से कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल लेते थे। यह क़ौक़न बेग, 'ग़ालिब' के दादा थे। वह कुछ दिन तक लाहौर में रहे, और फिर दिल्ली चले आए। बाद में शाहआलम की नौकरी में लग गए। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का परगना रिसाले और ख़र्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़न बेग ख़ाँ के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्ला बेग ख़ाँ और नसरुउल्ला बेग ख़ाँ का वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, 'ग़ालिब' के पिता थे। अब्दुल्ला बेग का भी जन्म दिल्ली में ही हुआ था। जब तक पिता जीवित रहे, मज़े से कटी, पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गई।[3] अब्दुल्ला बेग ख़ाँ की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठ कुल में 'ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ कमीदान' की बेटी, 'इज़्ज़तउन्निसा' के साथ हुई थी। ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ की आगरा में काफ़ी जायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्ला बेग को तीन सन्तानें हुईं-'मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ाँ' (ग़ालिब), मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।
मिर्ज़ा ग़ालिब की शिक्षा (Mirza Ghalib Education)
मिर्ज़ा ग़ालिब की शिक्षा के बारे में कोई पर्याप्त जानकारी नहीं हैं. जितनी भी जानकारी मिलती हैं उनके द्वारा लिखी गयी शायरियों में मिलती हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब ने 11 साल की उम्र में ईरान से दिल्ली आये एक नव-मुस्लिम-वर्तित के साथ रहकर फारसी और उर्दू सिखाना शुरू कर दी थी. मिर्ज़ा द्वारा ज्यादातर गजल फारसी और उर्दू में लिखी गयी हैं. जो कि पारम्परिक भक्ति और सौन्दर्य रस से भरपूर हैं.
मिर्ज़ा ग़ालिब का वैवाहिक जीवन (Married Life of Mirza Ghalib)
13 साल की उम्र में मिर्ज़ा ग़ालिब का निकाह 11 साल की उमराव बेगम से हो गया था. कुछ इतिहासकारों के अनुसार मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन में उनकी पत्नी का बहुत बड़ा प्रभाव रहा हैं. उनकी शायरियों में कहीं न कही उनके वैवाहिक जीवन की प्रतिकृति नजर आती हैं. लेकिन तब भी मिर्ज़ा ग़ालिब की पत्नी के बारे में इतिहास में ज्यादा जानकारी नही मिलती हैं.
मिर्ज़ा ग़ालिब ने जीवन में शादी को कैद की तरह बताया था. इसका सबूत उनके दोस्त की पत्नी की मौत के शोक पत्र में देखने को मिलता हैं जिसमे मिर्ज़ा ने लिखा था कि “मुझे खेद है. लेकिन उसे भी ईर्ष्या. कल्पना करो! वह अपनी जंजीरों से मुक्त हो गई है और यहां मैं आधी शताब्दी से अपने फंदे को लेकर घूम रहा हूँ.” मिर्ज़ा ग़ालिब के वैवाहिक जीवन में एक दुखद पक्ष यह भी हैं कि ग़ालिब को सात संताने हुई थी लेकिन उन सातों बच्चों में से एक भी बच नहीं पाई. इसी वजह से उन्हें दो बुरी आदतें लग गयी थी. एक शराब और दूसरी जुआ. ये दोनों आदतें उनका मरते दम तक साथ नहीं छोड़ सकी.
मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन में शायरियों का सफ़र (Mirza Ghalib and his Shayaris)
13 साल ही उम्र में शादी होने के बाद मिर्ज़ा अपनी बेगम और भाई मिर्जा यूसुफ खान के साथ दिल्ली आ गए. दिल्ली आने के बाद उन्हें यह पता चला कि मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बेटे फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा को शेर-शायरियां सिखाने के लिए एक शायर की जरूरत हैं. जिसके बाद मिर्ज़ा ग़ालिब बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे को शेर-ओ-शायरी की गहराइयों की तालीम देने लगे.
बहादुर शाह जफ़र भी उर्दू शेर शायरी के बहुत बड़े प्रशंसक होने के साथ-साथ कवि थे. इसीकारण मिर्ज़ा की ग़ज़ल, शेर-शायरियाँ पढने में रूचि लिया करते थे. धीरे धीरे मिर्ज़ा ग़ालिब दरबार के खास दरबारियों में शामिल हो गए. उनकी शायरियों में उनके असफल प्यार और जीवन पीढ़ा को ही नहीं दर्शाया गया बल्कि जीवनशास्त्र के रहस्यवाद को भी दर्शाया गया हैं. 1850 में शहंशाह बहादुरशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा. बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी मिला.
1857 की क्रांति के बाद मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िन्दगी पूरी तरह बदल गयी. स्वतंत्रता संग्राम में मुग़ल सेना को ब्रिटिश राज से हार मिली जिसके बाद बहादुर शाह को अंग्रेजों ने रंगून भेज दिया. जिससे मुग़ल दरबार नष्ट हो गया. मिर्ज़ा को भी आय मिलना बंद हो गयी. इस दौरान मिर्ज़ा ग़ालिब के पास खाने के भी पैसे नहीं बचे. वह छोटे-छोटे समारोह में जाकर अपनी शायरियों से लोगों को प्रभावित करने लग गए. मिर्ज़ा में अपने जीवन की बेहतरीन शायरियाँ इसी समय में लिखी इसी कारण मिर्ज़ा को आम लोगों का शायर भी कहा गया.
शाही ख़िताब
1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के ख़िताब से नवाज़ा। बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का ख़िताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह द्वितीय के पुत्र मिर्ज़ा फ़ख़रु का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय में मुग़ल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।
मिर्जा गालिब की गिरफ़्तारी
वर्ष1845 के करीब आगरा से एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया, जो एक सख़्त आदमी था. आते ही उसने जुआ खेलने वालों के खिलाफ सख़्ती से जाँच करनी शुरू की. कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, एक दिन कोतवाल ने छापा मारा और जुआ खेलने के जुर्म में मिर्ज़ा को गिरफ्तार कर लिया. जिसमें मुकदमे के बाद मिर्जा को 6 माह की सज़ा हुई थी.
मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल की कहानी व किरदार (Mirza Ghalib Serial and Characters )
मुग़ल साम्राज्य के समय में व उसके नष्ट होने के बाद मिर्जा साहब की क्या स्थति थी, यही सीरियल की मुख्य कहानी है. मुग़ल साम्राज्य ख़त्म होने के बाद मिर्जा आगरा से दिल्ली के प्रवासी हो गए. जहाँ इन्हें पेंशन मिलना भी बंद हो गई, जिससे इनके खाने के भी लाले पड़ गए. पैसों के लिए ये वहां के लोकल कवी लोगों को अपनी कविता सुनाकर प्रभावित करते थे. लेकिन एक महान कवी उनके अंदर था, जिसे सबने जाना और पसंद किया.
| किरदार का नाम | असली नाम |
|---|---|
| मिर्ज़ा ग़ालिब | नशीरुद्दीन शाह |
| उमराव बेगम | तन्वी आज़मी |
| नवाब जान | नीना गुप्ता |
| बहादुर शाह जफ़र | सुधीर दलवी |
| मोहम्मद इब्राहीम | शफ़ी इनामदार |
| फ़क़ीर | जावेद खान |
मैं आधा मुसलमान हूं, क्योंकि शराब पीता हूं : गालिब
गालिब को पहली बार 1857 के विद्रोह के बाद गिरफ्तार किया गया था। उस समय कई मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें जब कर्नल ब्रून के सामने पेश किया गया तो उनसे पूछा गया कि क्या आप मुसलमान हैं। तो उनका जवाब था कि मैं आधा मुसलमान हूं। क्योंकि मैं शराब पीता हूं। लेकिन सुअर का मांस नहीं खाता। वे विनोद प्रिय व्यक्ति थे। 1841 में भी उनकी गिरफ्तारी जुए के आरोप में हुई थी। जिसमें उन्हें 6 महीने की कैद के साथ जुर्माना लगाया गया था।
रचनाएँ
- अज़ मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
- अपना अहवाल-ए-दिल-ए-ज़ार कहूँ
- कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
- कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
- कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
- कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइये
- क्या तंग हम सितमज़दगां का जहान है
- ख़ुश हो ऐ बख़्त कि है आज तेरे सर सेहरा
- गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
- गरम-ए-फ़रयाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
- अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने
- ‘असद’ हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
- आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
- आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़न-ए सदाए आब है
- आमों की तारीफ़ में
- उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब
- क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना
- गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
- घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
- चशम-ए-ख़ूबां ख़ामुशी में भी नवा-परदाज़ है
- जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
- ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है
- ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
- ज़हर-ए-ग़म कर चुका था मेरा काम
- जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआ
- ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री ‘ग़ालिब’
- जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
- तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
- ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
- तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
- तुम न आए तो क्या सहर न हुई
- तेरे वादे पर जिये हम
- दिल लगा कर लग गया उन को भी तनहा बैठना
- देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
- न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सबज़-ए-ख़त से
- नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
- नवेदे-अम्न है बेदादे दोस्त जाँ के लिए
- नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
- नुक्तह-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
- पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
- फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर
- फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
- फिर हुआ वक़्त कि हो बाल कुशा मौजे-शराब
- फुटकर शेर
- ब-नाला हासिल-ए-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
- बर्शकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
- बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला
- बिजली इक कौंद गयी आँखों के आगे तो क्या
- बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
- मस्ती ब-ज़ौक़-ए-ग़फ़लत-ए-साक़ी हलाक है
- मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें ‘ग़ालिब’
- मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
- ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
- रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
- रहा गर कोई ता क़यामत सलामत
- लब-ए-ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा-जम्बानी
- लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
- लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
- वह शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहां
- वह हर एक बात पर कहना कि यों होता तो क्या होता
- वां उस को हौल-ए-दिल है तो यां मैं हूं शरम-सार
- वुसअत-स-ईए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
- शुमार-ए सुबह मरग़ूब-ए बुत-ए-मुश्किल पसंद आया
- सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
- सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
- सियाहि जैसे गिर जावे दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
- हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
- हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझसे
- हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुशकिल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
- हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
- हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
- हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
- हुश्न-ए-बेपरवा ख़रीदार-ए-मता-ए-जलवा है
- है बज़्म-ए-बुतां में सुख़न आज़ुर्दा लबों से
पुस्तकें
- Diwan-e-Ghalib
- Ghazals of Ghalib
- Love sonnets of Ghalib
- Selected Lyrics and Letters Mirza Ghalib
- Ghalib: Selected Poems and Letters
- Ghalib 1797-1869: Life and Letters Mirza Ghalib
- Selected Poetry of Ghalib
- The famous Ghalib
- Digital Version of Mirza Asadullah Khan Ghalib’s Original Manuscript Divan Nuskha-E-Hamidiya: Penned by Mufti Hafeezuddin In 1821
- Ghālib in Translation Mirza Ghalib
- The lightning should have fallen on Ghalib Mirza Ghalib -1998
- Ghalib, his life and poetry
- Persian poetry of Mirza Ghalib
- The Seeing Eye: Selections from the Urdu and Persian Ghazals of Ghalib Mirza Ghalib
- Selections from Diwane-e-Ghalib: selected poetry of Mirza Asadullah Khan Ghalib
सबसे मशहूर शायरी
गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब पैगाम के
खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने “ग़ालिब” निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के.
दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहिये
यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे
काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये
ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब
की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये
समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल
की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल
हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये
कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये.
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें ,
चल निकलते जो में पिए होते .
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो ,
काश के तुम मेरे लिए होते .
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था ,
दिल भी या रब कई दिए होते.
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’,
कोई दिन और भी जिए होते.
दिले-नादां तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है.
हम हैं मुशताक और वो बेज़ार,
या इलाही ये माजरा क्या है.
मैं भी मूंह में ज़ुबान रखता हूं,
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है.
जबकि तुज बिन नहीं कोई मौजूद,
फिर ये हंगामा-ए-ख़ुदा क्या है.
ये परी चेहरा लोग कैसे है,
ग़मज़ा-ओ-इशवा-यो अदा क्या है.
शिकने-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्या है,
निगह-ए-चशम-ए-सुरमा क्या है.
सबज़ा-ओ-गुल कहां से आये हैं,
अबर क्या चीज है हवा क्या है.
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद,
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.
हां भला कर तेरा भला होगा,
और दरवेश की सदा क्या है.
जान तुम पर निसार करता हूं,
मैं नहीं जानता दुआ क्या है.
मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब',
मुफ़त हाथ आये तो बुरा क्या है.
घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता तो परेशां होता
वादे-यक उम्र-वराय बार तो देता बारे
काश रिज़वां ही दरे-यार का दरबां होता
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद कयों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूं सवाबे-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं
वरना क्या बात कर नहीं आती
कयों न चीखूं कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ बूए चारागर नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरजू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मूंह से जाओगे 'ग़ालिब'
शरम तुमको मगर नहीं आती
मेहरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वकत
मैं गया वकत नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं
जोफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूं
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूं
मिर्ज़ा ग़ालिब की मुत्यु (Mirza Ghalib Death)
मिर्ज़ा ग़ालिब के अंतिम साल गुमनामी में कटे लेकिन जीवन के अंतिम क्षण तक हाजिर जवाबी रहे. अंतिम समय में दिल्ली में महामारी फ़ैल गयी. उन्होंने अपने चहिते शागिर्द को तंज भरे लिहाज में पत्र लिखकर बताया “भई कैसी वबा? जब सत्तर बरस के बुड्ढे-बुढ़िया को न मार सकी.”
इसका एक और उदाहरण एक और जगह देखने को मिलता हैं अंतिम दिनों में ग़ालिब के शरीर में बेहद ही दर्द रहता था. वह बिस्तर पर ही दर्द से करहाते रहते थे. एक दिन दर्द से कराह रहे थे. तब मजरूह (नौकर) आया और देखा तो उनके पैर दबाने लगा. ग़ालिब ने उन्हें ऐसा करने से मना किया तो मजरूह बोला, ‘आपको बुरा लग रहा है तो आप मुझे पैर दबाने की मज़दूरी दे दीजिएगा.’ इस पर ग़ालिब ने कहा, ‘ठीक है.’ पैर दबाने के बाद जब मजरूह ने अपनी मज़दूरी मांगी तो ग़ालिब दर्द के बावजूद हंसते हुए बोले- ”कैसी उजरत भाई. तुमने मेरे पांव दाबे, मैने तुम्हारे पैसे दाबे. हिसाब बराबर.”
15 फरवरी 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब की मृत्यु हो गई लेकिन हैरत की बात यह थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे महान कवि की मृत्यु होने के दो दिन पश्चात् यह खबर पहली बार उर्दू अखबार अकमल-उल-अख़बार में छपी. रोचक बात यह हैं कि शादी को कैद बताने वाले इस शायर की पत्नी उमराव बेगम की मौत एक साल बाद हो गयी. दोनों की कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में बनायीं गयी. मृत्यु के बाद एक सदी तक यह कब्र पंचतत्वों के संपर्क में थी. लेकिन साल 1955 में ग़ालिब सोसाइटी नामक एक संगठन ने कब्र पर सफ़ेद संगमरमर की संरचना का निर्माण कर दिया. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी में दर्द की झलक मिलती हैं. जिससे पता चलता हैं कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष है जो मौत के साथ खत्म होती है.
मिर्ज़ा ग़ालिब पर धारावाहिक और फ़िल्में ( Serials and Films on the Mirza Ghalib)
मिर्ज़ा ग़ालिब पर 1954 में फिल्म बनायीं गयी थी. जिसका नाम “मिर्ज़ा ग़ालिब” ही था. इस फिल्म में मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार भारत भूषण ने निभाया था. और सौरभ मोदी ने डायरेक्ट किया था. इस फिल्म को बेस्ट फिल्म का राष्ट्रीय पुरुस्कार भी प्राप्त हुआ था. पकिस्तान में भी मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक फिल्म 1961 में बनायीं जा चुकी हैं. साल 1988 में टेलीविजन पर गुलजार का बनाया गया टीवी सीरियल “मिर्जा गालिब” काफी लोकप्रिय हुआ था. इस शो में मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार नसीरूद्दीन शाह द्वारा निभाया गया था.
Mirza Ghalib FAQ :
उत्तर: गालिब एक महान शायर थे।
उत्तर: मिर्जा असदुल्ला बेग खान
उत्तर: गालिब एक उत्तम शायर थे, जो अपनी शायरी के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करते थे और उनके शब्दों में आकर्षकता होती थी।
उत्तर: ग़ालिब उर्दू भाषा के सबसे महान शायरों में से एक हैं और उनकी रचनाएँ उर्दू और परसी भाषाओं में हैं।
उत्तर: मिर्ज़ा ग़ालिब के पिता का नाम मिरज़ा अब्बास बेग था।
उत्तर: उमराव बेगम
उत्तर: सात (कोई भी जीवित नहीं था)
उत्तर: मिर्जा गालिब की मृत्यु 15 फरवरी, 1869 को हुई थी।
उत्तर: दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में मिर्जा गालिब की कब्र है।
उत्तर: गालिब एक शायर थे, वे शायरी के लिए जाना जाता है।
उत्तर: भारतीय नाट्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र द्विवेदी द्वारा लिखित नाटक "उर्वशी" में मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन का वर्णन किया गया है। इस नाटक में मिर्ज़ा ग़ालिब के व्यक्तित्व को बहुत रोमांचक ढंग से पेश किया गया है।