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Habib Jalib Shayari: मशहूर उर्दू शायर हबीब जालिब की कुछ सबसे मशहूर शायरियां जो दिखाती है सत्ता को आयना 

 

हबीब जालिब 12 मार्च 1993 को हमारे बीच नहीं रहे थे, लेकिन वे ऐसे शायर हैं, जिन्हें याद करने के लिए तारीखों की जरूरत नहीं। हबीब उन चंद नामों में से हैं कि कोई पूछे कि एक शायर, कवि, साहित्यिक या इंसान को कैसा होना चाहिए, तो हम बिना दिमाग पर जोर डाले जिन नामों को जवाब की शक्ल में उछाल सकते हैं, उनमें से एक नाम इस आवाम के शायर का भी है। जिन लोगों ने हबीब को पढा-सुना है वे मेरी बात से सहमत होंगे। हालांकि ऐसे लोग कम ही होंगे, जिन्होंने हबीब जालिब को नहीं पढा। फिर भी उन बदकिस्मत लोगों के लिए अफसोस के अलावा चंद बातें और कुछ नज्में

दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है

दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है 
दोस्तों ने भी क्या कमी की है 

ख़ामुशी पर हैं लोग ज़ेर-ए-इताब 
और हम ने तो बात भी की है 

मुतमइन है ज़मीर तो अपना 
बात सारी ज़मीर ही की है 

अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी 
ग़म उठाए हैं शाएरी की है 

अब नज़र में नहीं है एक ही फूल 
फ़िक्र हम को कली कली की है 

पा सकेंगे न उम्र भर जिस को 
जुस्तुजू आज भी उसी की है 

जब मह-ओ-महर बुझ गए 'जालिब' 
हम ने अश्कों से रौशनी की है 

इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी'

इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी' 
मेरी तरह वफ़ा का परस्तार 'मुसहफ़ी' 

रहता था कज-कुलाह अमीरों के दरमियाँ 
यकसर लिए हुए मिरा किरदार 'मुसहफ़ी' 

देते हैं दाद ग़ैर को कब अहल-ए-लखनऊ 
कब दाद का था उन से तलबगार 'मुसहफ़ी' 

ना-क़द्री-ए-जहाँ से कई बार आ के तंग 
इक उम्र शे'र से रहा बेज़ार 'मुसहफ़ी' 

दरबार में था बार कहाँ उस ग़रीब को 
बरसों मिसाल-ए-'मीर' फिरा ख़्वार 'मुसहफ़ी' 

मैं ने भी उस गली में गुज़ारी है रो के उम्र 
मिलता है उस गली में किसे प्यार 'मुसहफ़ी' 

'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं

'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं 
मौत ये तेरा सितम भूलने वाला है कहीं 

हम से जिस वक़्त ने वो शाह-ए-सुख़न छीन लिया 
हम को वो वक़्त-ए-अलम भूलने वाला है कहीं 

तिरे अश्क और भी चमकाएँगी यादें उस की 
हम को वो दीदा-ए-नम भूलने वाला है कहीं 

कभी ज़िंदाँ में कभी दूर वतन से ऐ दोस्त 
जो किया उस ने रक़म भूलने वाला है कहीं 

आख़िरी बार उसे देख न पाए 'जालिब' 
ये मुक़द्दर का सितम भूलने वाला है कहीं 

'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा

'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा 
हम से तय न होगी क्या मंज़िल-ए-अदब तन्हा 

फ़िक्र-ए-अंजुमन किस को कैसी अंजुमन प्यारे 
अपना अपना ग़म सब का सोचिए तो सब तन्हा 

सुन रखो ज़माने की कल ज़बान पर होगी 
हम जो बात करते हैं आज ज़ेर-ए-लब तन्हा 

अपनी रहनुमाई में की है ज़िंदगी हम ने 
साथ कौन था पहले हो गए जो अब तन्हा 

मेहर-ओ-माह की सूरत मुस्कुरा के गुज़रे हैं 
ख़ाक-दान-ए-तीरा से हम भी रोज़-ओ-शब तन्हा 

कितने लोग आ बैठे पास मेहरबाँ हो कर 
हम ने ख़ुद को पाया है थोड़ी देर जब तन्हा 

याद भी है साथ उन की और ग़म-ए-ज़माना भी 
ज़िंदगी में ऐ 'जालिब' हम हुए हैं कब तन्हा