Gorakh Pandey Poetry: कवि गोरख पाण्डेय की वो बेहतरीन कवितायेँ जिनमें दिखा लोगों का दर्द
देवरिया जनपद के पंडित के मुड़ेरवा गांव में में जन्मे गोरख पांडेय ने दिमागी बीमारी सिजोफ्रेनिया से परेशान होकर 29 जनवरी 1989 दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के झेलम होस्टल के अपने कमरे में आत्महत्या कर ली थी.उस समय वह विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट थे आत्महत्या के बाद गोरख के कमरे से एक ख़त बरामद हुआ था जिसमें उन्होंने लिखा था कि वो अपनी मानसिक बीमारी से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं.पंडितों के घर और गांव के कारण पाखंड रोज के अनुभव का अंग था और स्वभाव विद्रोही पाया था ।
गोरख पाण्डेय को इस दुनिया से रूखसत हुए एक लम्बा अरसा गुजर चुका है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, गोरख की कविताएँ और लोकप्रिय होती जाती हैं। गोरख आंदोलन के कवि हैं। आंदोलनों ने ही गोरख को और गोरख की कविताओं को लोकप्रिय बनाया है। खासकर छात्रों और नौजवानों के आंदोलनों में जितनी गोरख की कविताएँ पढ़ी जाती हैं और गीत गाये जाते हैं, उनके समकालीन हिंदी साहित्य के शायद ही किसी कवि को उतना मुनासिब हो। तात्पर्य ये कि इतनी सरल और सुव्यवस्थित भाषा में गोरख ने कविताएँ कही हैं, कि कोई भी गोरख की कविताओं और गीतों को समझ जाता है। सिर्फ समझ ही नहीं जाता बल्कि उनसे आसानी से जुड़ जाता और ऐसा महसूस करता है कि गोरख ने उसी के दर्द को कविता के रूप में कलमबद्ध किया हो।गोरख के लेखन का अधिकांश तो उपलब्ध हो गया है लेकिन कुछ चीजें अब भी नहीं मिल सकी हैं, तो आईये आज आपको मिलाएं इनकी कुछ सबसे बेहरीन कविताओं से...
जन गण मन अधिनायक जय हे !
जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेज़ी के गायक जय हे ! जन...
जय समाजवादी रंग वाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे ! जन...
जय हे ज़मींदार पूंजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतन्त्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे ! जन...
जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुन्दरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे ! जन...
हमारे वतन की नई ज़िन्दगी हो,
नई ज़िन्दगी इक मुकम्मिल ख़ुशी हो।
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों,
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो।
न हो कोई राजा, न हो रंक कोई,
सभी हों बराबर सभी आदमी हों।
न ही हथकड़ी कोई फ़सलों को डाले,
हमारे दिलों की न सौदागरी हो।
ज़ुबानों पे पाबन्दियाँ हों न कोई,
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो।
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन,
न ही कोई भी क़ायदा हिटलरी हो।
सभी होंठ आज़ाद हों मयक़दे में,
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो।
नए फ़ैसले हों नई कोशिशें हों,
नई मंज़िलों की कशिश भी नई हो।
समय का पहिया चले रे साथी
समय का पहिया चले
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले
कला कला के लिए हो
जीवन को ख़ूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो
मज़दूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ़ मेहनत
पूंजीपति हों मेहनत की जमा पूंजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानि,जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
ग़ुलाम हों
ग़ुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फ़ौज हो
फ़ौज के लिए फिर युद्ध हो
फ़िलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए.
फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए
बादलों के ग़लीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई
ज़िन्दगी
जो कभी मात खाए नहीं
और ख़ुशबू हैं
जिसको कोई बाँध पाए नहीं
ख़ूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें ।
1
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई।
2
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है।
3
महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी।
4
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है।
5
कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया।
6
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है।
7
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक।
8
मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है।
9
कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकने वालों से पूछिये
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है।
रास्ते में उगे हैं काँटे
रास्ते में उगे हैं पहाड़
देह में उगे हैं हाथ
हाथों में उगे हैं औज़ार
चैन की बाँसुरी बजाइये आप
शहर जलता है और गाइये आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइये आप
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये.
कहीं चीख उठी है अभी
कहीं नाच शुरू हुआ है अभी
कहीं बच्चा हुआ है अभी
कहीं फ़ौजें चल पड़ी हैं अभी ।
मेहनत से मिलती है
छिपाई जाती है स्वार्थ से
फिर, मेहनत से मिलती है.