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Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Biography In Hindi : देश के सबसे ज्यादा पसंद किये जाने वाले शायर मजाज़ लखनवी का जीवन परिचय

 

मजाज़ लखनवी जिनका पूरा नाम असरार उल हक़ 'मजाज़' (Asarar Ul Huq Majaaj) था का जन्म 19 अक्तूबर, 1911 को बाराबंकी उत्तर प्रदेश में और मृत्यु 5 दिसम्बर, 1955 को हुई थी, ये देश के सबसे प्रसिद्ध शायरों में से एक थे। उन्हें तरक्की पसन्द तहरीक और इन्कलाबी शायर भी कहा जाता है। महज 44 साल की छोटी-सी उम्र में उर्दू साहित्य के 'कीट्स' कहे जाने वाले असरार उल हक़ 'मजाज़' इस जहाँ से कूच करने से पहले अपनी उम्र से बड़ी रचनाओं की सौगात उर्दू अदब़ को दे गए शायद मजाज़ को इसलिये उर्दू शायरी का 'कीट्स' कहा जाता है, क्योंकि उनके पास अहसास-ए-इश्क व्यक्त करने का बेहतरीन लहजा़ था, तो आईये आज करीब से मिलाएं इनके जीवन परिचय से...

मजाज़

पूरा नाम असरार उल हक़ 'मजाज़'
अन्य नाम मजाज़ लखनवी
जन्म 19 अक्तूबर, 1911
जन्म भूमि बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 5 दिसम्बर, 1955
अभिभावक चौधरी सिराज उल हक़ (पिता)
कर्म-क्षेत्र उर्दू शायर, वैचारिक लेखन
भाषा उर्दू, अरबी, हिंदी
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी असरारुल हक़ मजाज़ का शुमार एशिया के महानतम कवियों में किया जाता है। असरारुल हक़ मजाज़ की शायरी का अनुवाद हिंदी, रूसी, अंग्रेज़ी आदि कई भाषाओं में हो चुका है।

मजाज़ लखनवी का जन्म | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Birth And Early Life 

उर्दू शायरी का 'कीट्स' कहे जाने वाले मजाज़ लखनवी का जन्म 19 अक्तूबर, सन 1911 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले में हुआ था। हालाँकि फ़िराक़ गोरखपुरी के अनुसार उनकी जन्म-तिथि 2 फरवरी 1909 है। इसके साथ ही प्रकाश पंडित ने भी यही जन्म-तिथि मानी है। ये प्रसिद्ध समकालीन गीतकार जावेद अख्तर के चाचा है। मजाज़ का असली नाम असरारुल हक़ था। आगरा में रहते समय उन्होंने 'शहीद' उपनाम अपनाया था। बाद में उन्होंने 'मजाज़' उपनाम अपने नाम के साथ जोड़ा था। 

मजाज़ लखनवी का परिवार | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Family 

बाराबंकी ज़िले में जन्मे मजाज़ लखनवी के वालिद का नाम चौधरी सिराज उल हक़ था। चौधरी सिराज उल हक़ अपने इलाके में पहले आदमी थे, जिन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की थी। वे रजिस्ट्री विभाग में सरकारी मुलाजिम थे।  उनका परिवार हालंकि ज़मींदार था लेकिन माली हालत (वित्तीय स्थिति) कोई ख़ास नहीं थी। उनके परिवार में अवधी बोली जाती थी। यहां उस समय वह ज़मींदार रहा करते थे जिनका तआल्लुक़ बहुत ही पारंपरिक समाज से होता था लेकिन उनके सामंती समाज में बदलाव होने लगा था। इस ज़िले ने देश को कई साहित्यिक हस्तियां दी हैं।मजाज़ जब आठ साल के थे तभी एक हादसे में उनके 18 साल के भाई का निधन हो गया जिसका उनकी मानसिकता पर गहरा असर पड़ा। बड़े बेटे के असामयिक निधन से मजाज़, मां के और लाडले हो गए थे। 

मजाज़ लखनवी की शिक्षा | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Education 

मजाज़ का बचपन रुदौली में बीता जहां उन्होंने बुनियादी तालीम हासिल की और फिर लखनऊ के आमिर – उद-दौला कॉलेज से हाई स्कूल की परीक्षा पास करी । बीस के दशक के उत्तरार्ध में उनके पिता का तबादला आगरा हो गया जहां सेंट जॉन कॉलेज (1929-1931) में मजाज़ ने दाख़िला ले लिया । वालिद चाहते थे कि उनका बेटा इन्जीनियर बने, इस हसरत से उन्होंने अपने बेटे असरार का दाखिला आगरा के सेण्ट जांस कालेज में इण्टर साइन्स में कराया। मगर असरार की लकीरों में तो शायद कुछ और ही लिखा था। आगरा में उन्हें फानी, जज्बी, मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली। इस सोहबत का असर यह हुआ कि उनका रुझान बजाय इन्जीनियर बनने के गज़ल लिखने की तरफ हो गया। ‘असरार’ नाम के साथ ‘शहीद’ तख़ल्लुस जुड गया। कहा जाता है कि मजाज़ की शुरूआती ग़ज़लों को फानी ने इस्लाह किया।

सिराज-उल-हक़ के माता-पिता अब वहां (रुदौली) में नहीं थे और रुदौली से आगरा आना जाना आसान नहीं था, मजाज़ के पिता ने पूरे परिवार के साथ अलीगढ़ जाने का फ़ैसला किया। लखनऊ और आगरा में आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद मजाज़ ने उच्च शिक्षा के लिये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया जहां से उन्होंने 1936 में ग्रेजुएशन पूरा किया। ये वो समय था जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रगतिशील लेखकों का आंदोलन अपने परवान पर था।  सन् 1931 में उन्हें कॉलेज के एक मुशायरे में बेहतरीन ग़ज़ल पर गोल्ड मेडल भी मिला था। 1935 में उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बी॰ए॰ पास किया। बी॰ए॰ के बाद उन्होंने एम॰ ए॰ में भी नामांकन करवाया, परंतु अधिक रूचि न होने के कारण वे एम॰ ए॰ पूरा नहीं कर सके। शायरी के अलावा मजाज़ को हॉकी में भी अच्छी रुचि थी और वे हॉकी के अच्छे खिलाड़ी थे।

मजाज़ लखनवी का व्यक्तिगत जीवन | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Personal Life

मजाज़ एक लड़की को बेहद प्यार करते थे और वो उनसे शादी करना चाहते थे ,पर अफ़सोस की उनका ये रिश्ता कामयाब नही हो पाया क्योंकि उसने किसी और लड़के से शादी कर ली और इससे मजाज़ को एक बहुत बड़ा झटका लगा। इस वाकये के बाद वे बहुत अंदर से टूट गए और फिर किसी भी लड़की से वो दिल नही लगा सके। वे जीवन भर अविवाहित रहे और कहा जाता है कि उनकी सभी कविताएं उनके दिल की धड़कन से प्रभावित हैं। जिस समय वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे, उस दौरान वे वहाँ की महिलाओं के बीच बेहद प्रसिद्ध थे; मुख्य रूप से उनके आकर्षक व्यक्तित्व और रोमांटिक लेखन के कारण। यह प्रसिद्ध था कि उनके विश्वविद्यालय में महिलाएं लकी ड्रॉ में हिस्सा लेती थीं, ताकि यह तय किया जा सके कि रात को उनके तकिए के नीचे माज की गज़ल किताब कौन रखेगा। उनके सहयोगी और उर्दू साहित्यकार इस्मत चुगताई अपने आसपास की महिलाओं से इतने प्यार से पेश आने की बात पर मजाज़ को चिढ़ाते थे। इसके लिए उन्होंने एक बार प्रसिद्ध टिप्पणी की थी, लेकिन क्या वे अमीर लोगों से शादी करते हैं। एक बार, बॉलीवुड की एक बेहद लोकप्रिय अभिनेत्री, जिसे नरगिस दत्त कहा जाता है, ने लखनऊ में उसके एक प्रवास पर उसे भेंट की। वह उनसे मिलीं और उनकी डेयरी में उनका ऑटोग्राफ लिया।

मजाज़ लखनवी का शुरुवाती करियर | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Career 

एएमयू से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो ज्वाइन किया लेकिन पित्रस बुखारी के साथ मतभेद के बाद उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी। इस दौरान उन्होंने उस समय के प्रगतिशील मुखपत्र ‘नया अदब’ की स्थापना की। वह हार्डिंग लाइब्रेरी दिल्ली से भी जुड़े थे। मजाज़ प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के संस्थापकों में से एक थे। उन्होंने क्रांति में विश्वास किया, लेकिन वे स्वभाव से एक रोमांटिक व्यक्ति थे। उन्होंने कभी भी अपनी कविताओं में क्रांति का विज्ञापन नहीं किया लेकिन उनके व्यक्तित्व से मेल खाते प्रेम और रोमांस के मधुर गीत गाए। यही कारण है; उन्हें ‘कीट्स ऑफ इंडिया’ की संज्ञा दी गई है।

मजाज़ लखनवी के जीवन का निर्णायक मोड़ | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Life

आगरा के बाद वे 1931 में बी.ए. करने अलीगढ़ चले गए...... अलीगढ़ का यह दौर उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस शहर में उनका राब्ता मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी , सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुआ ,इनकी सोहबत ने मजाज़ के कलाम को और भी कशिश और वुसअत बख्शी । यहां उन्होंने अपना तखल्लुस ‘मजाज़’ अपनाया। इसके बाद मजाज़ गज़ल की दुनिया में बड़ा सितारा बनकर उभरे और उर्दू अदब के फलक पर छा गये। अलीगढ़ में मजाज़ की आत्मा बसती थी। कहा जाता है कि मजाज़ और अलीगढ़ दोनों एक दूसरे के पूरक थे....... एक दूसरे के लिए बने थे। अपने स्कूली जीवन में ही मजाज़ अपनी शायरी और अपने व्यक्तित्व को लेकर इतने मकबूल हो गए थे कि हॉस्टल की लड़कियां मजाज़ के गीत गाया करती थीं और उनके साथ अपने सपने बुना करती थीं। अलीगढ़ की नुमाईश , यूनीवर्सिटी, वहां की रंगीनियों आदि को लेकर मजाज़ ने काफी लिखा-पढ़ा। मजाज़ की शायरी के दो रंग है-पहले रंग में वे इश्किया गज़लकार नजर आते हैं वहीं दूसरा रंग उनके इन्कलाब़ी शायर होने का मुज़ाहिरा करता है। अलीगढ़ में ही उनके कृतित्व को एक नया विस्तार मिला। वे प्रगतिशील लेखक समुदाय से जुड़ गये। ‘मजदूरों का गीत’ हो या ‘इंकलाब जिंदाबाद’ , मजाज ने अपनी बात बहुत प्रभावशाली तरीके से कही।

अलीगढ़ का दौर उनकी जिन्दगी को नया मोड़ देने वाला रहा। आगरा में जहां वे इश्किया शायरी तक सीमित थे, अलीगढ़ में उस शायरी को नया आयाम मिला। आगरा से अलीगढ़ तक आते आते शबाब , इन्कलाब में तब्दील हो गया। 1930-40 का अन्तराल देश दुनिया में बड़ी तब्दीलियों का दौर था। राष्ट्रीय आंदोलन में प्रगतिशीलता का मोड़ आ चुका था। साहित्यकारों की बड़ी फौज़ इन्कलाब के गीत गा रही थीं। अलीगढ़ इससे अछूता कैसे रह सकता था। अलीगढ़ में भी इन विचारों का दौर आ चुका था। तरक्कीपसंद कहे जाने वाले तमाम कवि-लेखकों का अलीगढ़ आना-जाना हो रहा था। डा0 अशरफ यूरोप से लौट आए थे, अख्तर हुसैन रामपुरी बी0ए0 करने बाद आफ़ताब हॉस्टल में रह रहे थे । सब्त हसन भी अलीगढ़ में ही थे। सज्जाद जहीर ऑक्सफोर्ड में बहुत दिनों तक रहने के बाद अलीगढ़ आ गये थे। अंगे्रजी हुकूमत के दौरान कई तरक्कीपसन्द कही जाने वाली पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित होकर ’जब्त ’ हो रही थीं, जाहिर है कि इन घटनाओं का असर मजाज़ और उनकी शायरी पर पडना लाजिमी थी । डा0 अशरफ , अख्तर रायपुरी, सबत हसन, सरदार जाफरी, जज्बी और ऐसे दूसरे समाजवादी साथियों की सोहबत में मजाज भी तरक्की पसंद तथा इंकलाबी शायरों की सोहबत में शामिल हो गये । ऐसे माहौल में मजाज ने ’इंकलाब’ जैसी नज्म बुनी । इसके बाद उन्होने रात और रेल ,नजर, अलीगढ, नजर खालिदा ,अंधेरी रात का मुसाफिर ,सरमायादारी,जैसे रचनाएं उर्दू अदबी दुनिया को दीं। मजाज़ अब बहुत मकबूल हो चुके थे।

1935 में वे आल इण्डिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर मजाज़ दिल्ली आ गये। दिल्ली में नाकाम इश्क ने उन्हें ऐसे दर्द दिये कि जो मजाज़ को ताउम्र सालते रहे। यह पत्रिका बमुश्किल एक साल ही चल सकी, सो वे वापस लखनऊ आ गए। इश्क में नाकामी से मजाज़ ने शराब पीना शुरू कर दिया। शराब की लत इस कदर बढ़ी कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। दिल्ली से विदा होते वक्त उन्होंने कहा...

रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं
नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं

मजाज़ लखनवी का साहित्यिक सफर | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Literature Career 

जब उन्होंने अलीगढ़ में कविता लिखना शुरू किया, तो वे वहां की साहित्यिक भीड़ के बीच एक हिट बन गए। अलीगढ़ के सभी साहित्यकारों ने उनके काम की गंभीरता से प्रशंसा और सम्मान करना शुरू कर दिया। उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लिए एक सुंदर गान की रचना की – ये मेरा चमन, है मेरा चमन, मुख्य अपना चमन का बुलबुल हुन। वे प्रेम और क्रांति के कवि थे, लेकिन ज्यादातर प्रेम पर लिखना पसंद करते थे। शैली से, उन्हें नज़्म के कवि के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। लेकिन उनमें से अधिकांश प्रथागत रूप में मुक्त छंद में नहीं थे। उनके नज़्म ने ग़ज़ल के सभी मापदंडों को बनाए रखा। उनका सबसे प्रसिद्ध नज़्म आवारा है, जिसे कभी लिखे गए सर्वश्रेष्ठ उर्दू नज़्म में से एक माना जाता है। उनका पहला काव्य संग्रह आहंग ’1938 में प्रकाशित हुआ था, इसके बाद 1945 में शब-ए-ताब और 1945 में साज़-ए-नाऊ में लिया गया था। उनके प्रसिद्ध काम- ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वक़्त-ए-दिल क्या करूं को हिमदी के लिए तलत महमूद ने गाया था। यह उर्दू साहित्यिक कविताओं को हिंदी गीतों में बदलने के शुरुआती प्रयासों में से एक था। अली सरदार जाफ़री की एक लोकप्रिय टेलीविज़न सीरीज़ कहकशां से बहुत सारे साउंडट्रैक – जो कि माज़ाज़ के मित्र भी थे, प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह द्वारा गाए गए माज़ की कविताएँ थीं। यह टेलीविज़न सीरीज़ भी बहुत हद तक मजाज़ के जीवन पर आधारित थी।

मजाज़ लखनवी की विचार एवं लेखन-शैली | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Literature 

'मजाज़' प्रगतिशील आंदोलन के प्रमुख हस्ती रहे अली सरदार जाफ़री के निकट संपर्क में थे और इसलिए प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित भी थे। स्वभाव से रोमानी शायर होने के बावजूद उनके काव्य में प्रगतिशीलता के तत्त्व मौजूद रहे हैं। उपयुक्त शब्दों का चुनाव और भाषा की रवानगी ने उनकी शायरी को लोकप्रिय बनाने में प्रमुख कारक तत्त्व की भूमिका निभायी है। उन्होंने बहुत कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा उससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। सामान्यतः उर्दू शायरी का बखिया उधेड़ने वाले प्रसिद्ध आलोचक कलीमुद्दीन अहमद ने मजाज़ के काव्य में भी अनेक कमियाँ दिखलायी है: फिर भी यह माना है कि उनकी गजलों के विषय अवश्य नये हैं और उसमें उस प्रकार की संपृक्तता व क्रमबद्धता भी पायी जाती है जो क्रमबद्ध ग़ज़लों में होती हैं। 'नज़रे-दिल', 'आज की रात', 'मजबूरियाँ' इन सब ग़ज़लों की रचना में परिश्रम किया गया है। शब्दों पर उनका अधिकार है और वर्णन शैली में प्रवाह व प्रफुल्लता है।

सज्जाद ज़हीर ने मजाज़ की प्रतिभा, कवित्व-शक्ति एवं विषय-वैशिष्ट्य को एक साथ निरूपित करते हुए लिखा है कि "हालाँकि अपनी प्रतिभा के बल पर वे समाजवादी दर्शन और विचारधारा के साथ-साथ प्रचलित राजनीतिक विचारों की जानकारी रखते थे; लेकिन वे ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील नहीं दिखाई देते थे। किसी काम को व्यवस्थित रूप से और धैर्य के साथ करना उनके बस की बात न थी। उनके मिज़ाज में एक लतीफ़ और दिलकश रंगीनी थी। वे सुंदर और संगीतात्मक शब्दों और तरकीबों (समस्त पद) के प्रयोग द्वारा अपने शे'रों में हर्ष, उल्लास और रूमानियत के ऐसे वातावरण के निर्माण में समर्थ थे जिसके माध्यम से वे अपने समय के मुक्ति-आकांक्षी नौजवानों की बेचैन आत्मा को अपनी रचनाओं में समाहित कर लेते थे। यह आत्मा समाज के उन दक़ियानूसी बंधनों से मुक्ति के लिए व्यग्र थी जिन्होंने उनके लिए मानसिक प्रगति, आध्यात्मिक सुख और शारीरिक आनंद से वंचित कर रखा है। जिन्होंने स्वच्छंद और मनोवांछित करने के अधिकार को नौजवानों से छीन लिया है, उनके सोच को बंधक बना लिया है और जो ग़रीबी के बेरहम तीनों का निशाना बनाकर जीवन की तरंगों को हताशा, दुर्भाग्य और करुण वेदना में बदल देते हैं। वे बहुत जल्द उर्दू दाँ तालीमयाफ़्ता नौजवान लड़कों और शायद उनसे भी ज़्यादा लड़कियों के सबसे महबूब शायर बन गए।"

वस्तुतः मजाज़ की मूल चेतना रोमानी है। इनके काव्य में प्रेम की हसरतों और नाकामियों का बड़ा व्यथापूर्ण चित्रण हुआ है। आरंभ में मजाज़ की प्रगतिशील रचनाओं के पीछे भी एक रोमानी चेतना थी, मगर धीरे-धीरे इनकी विचारधारा का विकास हुआ और मजाज़ अपने युग की आशाओं, सपनों, आकांक्षाओं और व्यथाओं की वाणी बन गये। मजाज़ ने दरिद्रता, विषमता और पूँजीवाद के अभिशाप पर बड़ी सशक्त क्रांतिकारी रचनाएँ की हैं, मगर काव्य के प्रवाह और सरसता में कहीं कोई बाधा नहीं आने दी।

मजाज़ लखनवी की रचनाएँ | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Writings 

  • आहंग 
  • नर्म अहसासों के साथ क्रान्ति की आवाज
  • बोल धरती बोल
  • नजरे-दिल 
  • ख्वाबे-सहर
  • वतन आशोब 
  • बोल! अरी ओ धरती बोल 

मजाज़ लखनवी के अवार्ड्स और ख़िताब | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Awards

फैज उन्हें ‘क्रान्ति के गायक’ का खिताब देते हैं। इस महान शायर की जन्म शताब्दी पर स्मरण करना ’अदब’ के लिए जुरूरी है। उर्दू साहित्य के कीट्स माने जाने वाले मजाज़ को अदबी दुनिया का सलाम, जब तक उर्दू साहित्य रहेगा , मजाज़ उसी इज्ज़त -मोहब्बत के साथ गुनगुनाये जाते रहेंगे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने बहुत पहले कहा था कि वे क्रान्ति के ढिढो़रची की बजाय ‘क्रांति के गायक’ हैं।

मजाज़ लखनवी की मृत्यु | Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Death

1940 से पहले नर्वस ब्रेकडाउन से लेकर 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन तक आते आते वे शारीरिक रूप से काफी अक्षम हो चुके थे। 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन के बाद वे जैसे-तैसे स्वस्थ हो ही रहे थे कि उनकी बहन साफिया का देहान्त हो गया यह सदमा उन्हें काफी भारी पडा़। 5 दिसम्बर 1955 को मजाज ने आखिरी सांस ली। महज 44 साल का यह कवि अपनी उम्र को चुनौती देते हुए बहुत बडी रचनाएं कह के दुनिया से विदा हुआ।