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वीडियो में देखें बरेली फैमिली कोर्ट का विवादित रुख “तलाक मंजूर, शादी के बायोडाटा में लिखिए बिना मां बाप वाला पति चाहिए”

 

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक तलाक मामले में कोर्ट की टिप्पणी ने सुर्खियाँ बटोरी हैं। पारिवारिक न्यायालय के अपर प्रधान न्यायाधीश ज्ञानेंद्र त्रिपाठी ने कहा कि अगर कोई महिला शादी के बाद सिर्फ पति के साथ रहना चाहती है और संयुक्त-परिवार नहीं चाहती तो उसे अपने शादी के बायोडाटा में स्पष्ट लिख देना चाहिए कि उसे ऐसा जीवनसाथी चाहिए — “जिसका कोई न हो”: न माता-पिता, न भाई-बहन, ताकि शादी के बाद एकाकी रह सके। 

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मामला क्या था?

मामला एक महिला शिक्षिका और उनके पति के बीच का है। महिला ने शादी के बाद ससुराल में माता-पिता या सास-ससुर के साथ नहीं रहना चाहा, बल्कि अकेले रहना पसंद किया।  पति की ओर से तलाक की याचिका दायर की गई थी। कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं। अदालत ने पाया कि पत्नी की “संयुक्त परिवार में रहने से इनकार” और “एकाकी जीवन चाहने” की जिद, दायित्व-और-सूरक्षा की साझेदारी का अहसास नहीं कराती। 

इस आधार पर जज ने पत्नी की मांग को “पारिवारिक मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों से बेदखली” स्वीकार की और तलाक मंजूर कर दिया। भी साथ ही, उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा कि यदि किसी को अकेला जीवन चाहिए, तो शुरू में ही स्पष्ट लिख दे कि उसे “बिना परिवार वाला पति” चाहिए। 


जज का कहना — व्यक्तिगत स्वातंत्र्य या सामाजिक राजनीति?

जज ज्ञानेंद्र त्रिपाठी ने कहा कि आधुनिक जीवन में “जॉइंट फैमिली को बोझ समझना” एक चिंताजनक चलन बन गया है। उन्होंने यह भी कहा कि “संयुक्त परिवार अकेलेपन की घुटन को दूर करता है,” जबकि अकेले रहना एकाकीपन और समाज-संस्कारों से दूरी का संकेत हो सकता है।  उनकी इस टिप्पणी में बहुत सी बातें ऐसी हैं, जो न सिर्फ पति-पत्नी के अधिकारों से जुड़ी हैं, बल्कि व्यापक सामाजिक-संस्कृति और परिवार व्यवस्था पर सवाल खड़े करती हैं।

तलाक के बाद — क्या बन पाएगा मिसाल?

कोर्ट की यह टिप्पणी उन महिलाओं के लिए precedent बनेगी, जो शादी के बाद अकेले रहना चाहती हों — शायद उन्हें “शुरू में ही तय-शर्त” के साथ पारिवारिक प्रस्तावनों में स्वीकार करना मुश्किल हो। दूसरी ओर, सामाजिक और कानूनी रूप से यह बहस शुरू हो सकती है कि क्या विवाह के समय “बिना परिवार वाला पति चाहिए” लिखना व्यावहारिक और स्वीकार्य मांग हो सकती है — या यह महिलाओं की आज़ादी और निजी पसंद के खिलाफ है।

इस प्रकार के फैसले से यह संदेश जाता है कि भारतीय सामाजिक-पारिवारिक ढाँचे में “संयुक्त परिवार” को अभी भी मजबूत माना जाता है — और इसे छोड़ना “स्वार्थ” या “परिवार-विरोधी” माना जा रहा है।