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दैत्य गुरु शुक्राचार्य कैसे बने शुक्र ग्रह, पढ़ें ये पौराणिक कथा

 

ज्योतिष न्यूज़ डेस्क: ज्योतिषशास्त्र में वैसे तो सभी ग्रहों को महत्वपूर्ण बताया गया है लेकिन शुक्र ग्रह बेहद खास माना जाता है इस ग्रह को भौर का तारा भी कहा जाता है इन्हें अपने सौंदर्य के लिए भी जाना जाता है शुक्र ग्रह की सुंदरता ऐसी की ज्योतिष विद्या में इन्हें सौंदर्य का देवता माना जाता है जीवन में दो वस्तु हर किसी के लिए जरूरी होते हैं वो है भाग्य और प्रेम, शुक्र ग्रह को इन दोनों का ही कारक माना जाता है धार्मिक और पौराणिक कथाओं के अनुसार शुक्र को भृगु ऋषि का पुत्र बताया गया है जिनका नाम कवि और भार्गव कहा जाता है मान्यता है कि इन्होंने अपने तपोबल से दैत्य गुरु की पदवी प्राप्त की थी, तो आज हम आपको अपने इस लेख द्वारा दैत्य गुरु शुक्राचार्य के शुक्र बनने से जुड़ी पौराणिक कथा बता रहे हैं तो आइए जानते हैं। 

जानिए पौराणिक कथा—
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु ऋषि का विवाह प्रजापति दक्ष् की कन्या ख्याति से हुआ जिससे धाता, विधाता दो पुत्र और श्री नाम की एक कन्या का जन्म हुआ था। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महर्षि अंगिरा के पुत्र जीव यानी गुरु और महर्षि भृगु के पुत्र कवि यानी शुक्र समकालीन थे

यज्ञोपवीत संस्कार के बाद दोनों ऋषियों की सहमति से अंगिरा ने दोनों बालकों की शिक्षा का दायित्व लिया। कवि महर्षि अंगिरा के पास ही रह कर अंगिरा नंदन जीव के साथ ही विद्याध्ययन करने लगे। मगर जैसे जेसे दोनों बड़े होते गए महर्षि का ध्यान अपने पुत्र पर अधिक रह केंद्रित होने लगा और कवि की वे उपेक्षा करने लगे। इस महसूस करते हुए कवि ने उनसे इजाजत ली और आगे की शिक्षा लेने के लिए गौतम ऋषि की शरण में जा पंहुचे।

गौतम ऋषि ने उनकी व्यथा को सुनकर उन्हें भगवान शिव की शरण लेने की सलाह दी। तक कवि ने गोदावरी के तट पर शिवकी तपस्या की। उनकी कठोर तप को देखते हुए शिव प्रसन्न हुए और शिव ने उन्हें ऐसी दुर्लभ मृतसंजीवनी विद्या दी जो कि देवताओं के पास भी नहीं थी। इस विद्या के बाद वह मृतक शरीर में भी प्राण डालने में सक्षम हो गए। इसके साथ ही शिव ने उन्हें ग्रहत्व प्रदान किया और वरदान दिया कि तुम्हारा तेज सभी नक्षत्रों से अधिक होगा। परिणय सूत्र में बंधने जैसे शुभ कार्य भी तुम्हारे उदित होने पर ही आरंभ होंगे। अपनी विद्या व वरदान से भृगु के पुत्र कवि ने दैत्यगुरु का पद हासिल किया। वही उन्हें कवेल कवि और भृगु पुत्र होने के कारण भार्गव नाम से दैत्यगुरु के नाम से जाना गया।