इनदिनों में इस गांव की महिलाएं नहीं पहनतीं कपड़े, वजह जानकर दंग रह जाएंगे आप
हमारे देश में परंपराएं और रीति-रिवाज इस तरह से जुड़े हुए हैं कि वे हर क्षेत्र और समुदाय में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। इनमें से कुछ परंपराएं इतनी अनोखी और अजीब होती हैं कि सुनकर किसी का भी दिमाग चकरा सकता है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के एक छोटे से गांव पीणी में ऐसी ही एक अद्भुत और रहस्यमय परंपरा आज भी बड़े ही सादगी और श्रद्धा के साथ निभाई जाती है, जो कि आपको जरूर हैरान कर देगी।
कुल्लू की देवभूमि और पीणी की अनोखी परंपरा
हिमाचल प्रदेश को देवभूमि कहा जाता है और यह नाम पूरी तरह से इसके सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व को दर्शाता है। कुल्लू जिले की मणिकर्ण घाटी में स्थित पीणी गांव में हर साल अगस्त के महीने में एक अनोखी धार्मिक परंपरा निभाई जाती है। फैशन और आधुनिकता भले ही हर जगह अपना प्रभाव छोड़ रही हो, लेकिन यहां की लोक संस्कृति और देवताओं के प्रति श्रद्धा आज भी वैसे की वैसे कायम है।
पांच दिनों की मनाही — हंसी-मजाक पर रोक
पीणी फाटी के दर्जनों गांवों में एक ऐसा नियम है, जिसके अनुसार पति-पत्नी सहित सभी लोगों को 17 से 21 अगस्त तक यानी पांच दिनों तक हंसी-मजाक करने से मनाही होती है। इस दौरान लोग एक-दूसरे से गंभीर और गंभीरतापूर्ण व्यवहार करते हैं। पत्नी-पत्नी के बीच भी कोई चुटकुला या हँसी-मजाक नहीं होना चाहिए। यह परंपरा बहुत ही कड़ी और सख्त मानी जाती है।
महिलाओं का खास पहनावा — ऊन से बना पट्टू
इन पांच दिनों में महिलाओं के लिए भी एक खास नियम है। वे पारंपरिक कपड़े छोड़कर ऊन से बने पट्टू (एक तरह का मोटा, ऊनी वस्त्र) ओढ़ती हैं। इस अवधि में महिलाएं आम कपड़े नहीं पहनतीं और पूरी तरह इस विशेष पहनावे में रहती हैं। यह परंपरा न केवल उनके पहनावे को बदलती है, बल्कि उनके मन और व्यवहार पर भी असर डालती है।
परंपरा की पौराणिक कथा
इस अनोखी परंपरा के पीछे एक पुरानी पौराणिक कथा है। माना जाता है कि लाहुआ घोंड नामक देवता जब पीणी पहुंचे थे, उस समय इस इलाके में राक्षसों का आतंक था। भादो संक्रांति के पहले दिन, यानी काला महीने के शुरुआत में, देवता ने राक्षसों का संहार कर पीणी को सुरक्षित किया। तब से ही इस विजय को याद करते हुए इस परंपरा का पालन किया जाता है।
कहा जाता है कि देवताओं के आने के बाद गांव में यह नियम बना कि पांच दिनों के लिए हंसी-मजाक, मदिरापान और पारंपरिक कपड़ों का उपयोग बंद करना होगा। इन दिनों को एक तरह से देवताओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है।
आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व
पीणी की इस परंपरा में महिलाओं की भूमिका विशेष महत्व रखती है। वे माता भागासिद्ध और लाहुआ घोंड देवता की सेवा और पूजा करती हैं। इस दौरान पूरा गांव कड़े देव नियमों का पालन करता है, जो उन्हें आध्यात्मिक शुद्धि और मानसिक अनुशासन की ओर प्रेरित करता है।
यह परंपरा ना केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि इससे गांव के लोगों के बीच अनुशासन, संयम और सामूहिक सद्भाव भी बढ़ता है। पांच दिनों की यह अवधि उनकी मानसिक शक्ति और संयम को मजबूत बनाती है।
आधुनिकता के बावजूद परंपरा की मजबूती
आज जब युवा वर्ग फैशन और आधुनिकता की ओर तेजी से बढ़ रहा है, तब भी पीणी के लोग इस पुरानी परंपरा को निभाने से पीछे नहीं हटते। यह परंपरा उनके लिए सिर्फ एक रीति-रिवाज नहीं, बल्कि उनकी सांस्कृतिक विरासत और पहचान है।
निष्कर्ष
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के पीणी गांव की यह अनोखी परंपरा बताती है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत कितनी विविध और रोचक है। यहां के लोग अपने देवताओं और परंपराओं के प्रति जो श्रद्धा दिखाते हैं, वह हमें भी अपनी संस्कृति से जुड़ने और उसकी महत्ता को समझने की प्रेरणा देती है।
ऐसी अनोखी और अद्भुत परंपराएं हमें याद दिलाती हैं कि हमारी संस्कृति कितनी गहरी, पुरानी और विविधतापूर्ण है, जिसे संजोकर रखना हमारी जिम्मेदारी है। यह परंपरा यह भी सिखाती है कि जीवन में अनुशासन, संयम और श्रद्धा का कितना महत्व है, जो हमें मानसिक और सामाजिक दोनों तरह से मजबूत बनाते हैं।