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इतने खतरनाक होते हैं इस जनजाति के लोग, जिस पेड़ को छूते हैं हो जाता है शापित

 

भारत विविधताओं का देश है और यहां की जनजातियां इसकी सांस्कृतिक संपदा का अहम हिस्सा हैं। इन्हीं जनजातियों में से एक है बिरहोर जनजाति, जो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में पाई जाती है। बिरहोर जनजाति को विशेष जनजातियों में शामिल किया गया है और इनकी जीवनशैली, परंपराएं, धार्मिक विश्वास और शिकार की विधियां न केवल रहस्यमयी हैं, बल्कि भारतीय आदिवासी संस्कृति की विविधता को भी दर्शाती हैं।

कौन हैं बिरहोर जनजाति?

बिरहोर जनजाति एक शिकारी और घुमंतू जनजाति मानी जाती है। यह जनजाति जंगलों में रहकर पारंपरिक जीवन जीती है और आज भी आधुनिक जीवनशैली से दूर है। बिरहोर लोग छोटी-छोटी बस्तियों में रहते हैं और लकड़ी, पत्तों और मिट्टी से बनी झोपड़ियों में अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

इनकी एक खास मान्यता है कि जो पेड़ ये छू देते हैं, वह शापित हो जाता है और उस पर बंदर कभी नहीं चढ़ते। यह विश्वास सदियों से इस समुदाय में चला आ रहा है और आज भी लोग इसे सच मानते हैं।

बंदरों का शिकार: जीवन का आधार

बिरहोर जनजाति मुख्य रूप से बंदरों का शिकार करती है और यही उनका प्रमुख भोजन होता है। उनका मानना है कि बंदर का मांस न केवल स्वादिष्ट होता है, बल्कि यह उनके पूर्वजों की परंपरा का भी हिस्सा है।

शिकार उनके लिए केवल भोजन का जरिया नहीं, बल्कि एक धार्मिक और सामूहिक अनुष्ठान होता है।

शिकार से पहले ‘भूत बुलाने’ की रस्म

बिरहोर जनजाति का शिकार कोई साधारण कार्य नहीं होता। इसके पहले एक अनोखी धार्मिक प्रक्रिया की जाती है, जिसे “भूत बुलाना” कहा जाता है।

इसमें तीन व्यक्ति एक स्थान पर बैठते हैं। एक व्यक्ति चावल के कुछ दाने सबके हाथों में देता है और फिर सभी मिलकर “जोहार-जोहार” कहते हुए मंत्र पढ़ते हैं और भूत को आमंत्रित करते हैं।

मान्यता है कि जिस व्यक्ति में भूत का वास होता है, उसका शरीर कांपने लगता है। फिर उसे एक बोतल शराब दी जाती है और पूछा जाता है कि शिकार मिलेगा या नहीं। अगर भूत कहता है कि शिकार मिलेगा, तो जमीन पर थोड़ी शराब गिराकर बाकी शराब सब मिलकर पीते हैं और फिर जंगल की ओर रवाना हो जाते हैं।

शिकार की रणनीति

बिरहोर जनजाति शिकार के लिए कम से कम छह लोगों की टीम बनाती है। सभी लोग हथियारों से लैस होते हैं जैसे:

  • धनुष-बाण

  • नाठी (लकड़ी की लाठी)

  • टांगी (कुल्हाड़ी)

  • हंसिया

  • और एक विशेष जाल जो बंदर पकड़ने के लिए होता है।

जंगल में पहुंचने के बाद सभी लोग एक जगह बैठकर रणनीति बनाते हैं। दो व्यक्ति बंदरों को खोजने निकलते हैं। जैसे ही उन्हें बंदर दिखाई देते हैं, वे सीटी बजाते हैं। सीटी की आवाज सुनकर बाकी साथी भी सीटी बजाते हैं और धीरे-धीरे बंदर को चारों तरफ से घेर लेते हैं।

बंदर पकड़ने की तकनीक

बंदर को पकड़ने की प्रक्रिया बेहद अनोखी होती है। दो लोग पेड़ों के बीच 15 फीट लंबा जाल बांध देते हैं। कुछ अन्य लोग पेड़ की डालियों की तरह छुप जाते हैं ताकि बंदर को भ्रम हो कि वह जंगल का हिस्सा है।

बंदर को चारों ओर से घेरकर दौड़ाया जाता है और जब उसके पास भागने का कोई रास्ता नहीं बचता, तो वह जाल की ओर भागता है और वहीं फंस जाता है।

फिर बंदर को पकड़कर समुदाय में लाया जाता है, जहां उसका मांस भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है।

पौराणिक कथा से जुड़ी मान्यता

बिरहोर जनजाति के बंदर से जुड़े इस व्यवहार की जड़ें रामायण काल से जोड़ी जाती हैं। मान्यता है कि इनका संबंध उस समय से है जब रामायण की घटनाएं घट रही थीं। बिरहोर लोग यह मानते हैं कि बंदर उनके पूर्वजों के शत्रु रहे हैं, और तब से उनका शिकार करते आ रहे हैं।

हालांकि इस कथा के ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते, लेकिन जनजातीय मान्यताओं में यह गहराई से रची-बसी है।

निष्कर्ष

बिरहोर जनजाति भारत की उन अनूठी जनजातियों में से है, जिनकी परंपराएं आज भी रहस्य और रोमांच से भरी हुई हैं। इनका जीवन जंगलों और प्रकृति के बीच बीतता है, जहां शिकार, विश्वास, और सामूहिकता जीवन का आधार हैं।

जहां एक ओर आधुनिक समाज इन परंपराओं को अंधविश्वास मान सकता है, वहीं दूसरी ओर यह हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता और विरासत का एक जीवंत उदाहरण भी हैं।

बिरहोर जनजाति की जीवनशैली यह सिखाती है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर भी जीवन जिया जा सकता है – भले ही वह आधुनिक संसाधनों के बिना ही क्यों न हो।