आज भी राजस्थान के इस किले में गूंजती है रानी पद्मिनी समेत सैंकड़ों रानियों की चीखे, वीडियो में खौफनाक इतिहास जान कांप जाएगी रूह
इतिहास के पन्नों में दर्ज वीरता और बलिदान की अनगिनत कहानियों में चित्तौड़गढ़ किला एक अनोखा स्थान रखता है। इस किले की दीवारें न सिर्फ राजपूती शान और गौरव की गवाही देती हैं, बल्कि उन हृदयविदारक घटनाओं की भी साक्षी हैं, जिनमें सैकड़ों रानियों ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जौहर कर प्राण त्याग दिए। आज भी, कहा जाता है कि चित्तौड़गढ़ किले की रातें उन वीरांगनाओं की करुण पुकारों से गूंजती हैं।
चित्तौड़गढ़ किले का गौरवशाली लेकिन करुण इतिहास
चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण 7वीं शताब्दी में मौर्य शासकों द्वारा करवाया गया था। यह किला 700 एकड़ से भी अधिक क्षेत्रफल में फैला हुआ है और भारत के सबसे बड़े किलों में गिना जाता है। ऊंची पहाड़ी पर स्थित यह दुर्ग राजपूतों की बहादुरी, बलिदान और स्वाभिमान का प्रतीक रहा है।लेकिन इस गौरवमयी धरोहर के गर्भ में एक दर्दनाक अतीत भी छिपा है। चित्तौड़गढ़ किले ने तीन बड़े युद्धों और तीन बार जौहर की त्रासदी देखी है। सबसे प्रसिद्ध जौहर 1303 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के दौरान हुआ, जब रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हजारों महिलाओं ने अग्नि कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी थी।
रानी पद्मिनी और पहला जौहर
रानी पद्मिनी, जो अपनी अद्वितीय सुंदरता और अदम्य साहस के लिए जानी जाती हैं, चित्तौड़गढ़ के इतिहास का एक अमिट हिस्सा हैं। अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मिनी की खूबसूरती का दीवाना हो गया था और उसने किले पर आक्रमण कर दिया। जब हार निश्चित हो गई, तब रानी पद्मिनी ने अन्य रानियों और राजपूत वीरांगनाओं के साथ मिलकर जौहर करने का निर्णय लिया।कहा जाता है कि करीब 16,000 रानियों और दासियों ने अग्नि में प्रवेश कर आत्मदाह कर लिया, ताकि वे खिलजी के हाथों अपमानित न हों। रानी पद्मिनी और अन्य वीरांगनाओं की इस अद्भुत शौर्यगाथा ने चित्तौड़गढ़ को अमर कर दिया, लेकिन इसने किले की हवाओं में एक अनकही वेदना भी घोल दी।
दूसरी और तीसरी जौहर की कहानियाँ
चित्तौड़गढ़ ने केवल एक बार नहीं, बल्कि तीन बार जौहर देखा। दूसरा जौहर 1535 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के आक्रमण के दौरान हुआ था। तीसरा और अंतिम जौहर 1567-68 में मुगल सम्राट अकबर के हमले के समय हुआ, जब हजारों महिलाओं ने फिर से अपने सम्मान की रक्षा के लिए आत्मदाह किया।हर बार जब चित्तौड़ हार की ओर बढ़ा, महिलाओं ने एक स्वर में अपने जीवन की आहुति दी और अपनी आस्था, स्वाभिमान और परंपरा को अपराजित रखा। इन तीनों घटनाओं ने चित्तौड़गढ़ को एक तीर्थस्थल बना दिया है — बलिदान का, वीरता का, और अपराजेय जज़्बे का।
आज भी सुनाई देती हैं चीखें
स्थानीय निवासियों और पर्यटकों के अनुसार, आज भी चित्तौड़गढ़ के किले में अजीब सी गतिविधियाँ महसूस की जाती हैं। रात के समय किले के गलियारों में महिलाओं के चीखने-चिल्लाने की आवाजें, किसी के रोने की गूँज, और अदृश्य परछाइयाँ देखे जाने की घटनाएं सामान्य हैं।कई लोग दावा करते हैं कि उन्होंने रानी पद्मिनी के महल के आसपास एक विशेष ऊर्जा महसूस की है — एक दर्द से भरी, लेकिन गर्व से भरी हुई उपस्थिति। इतिहास के जानकार भी मानते हैं कि जिन जगहों पर इतना बड़ा बलिदान हुआ हो, वहां भावनाओं का गहरा असर रहना स्वाभाविक है।
चित्तौड़गढ़: इतिहास, रहस्य और वीरता का संगम
चित्तौड़गढ़ किला सिर्फ पत्थरों का ढांचा नहीं है, बल्कि यह एक जीता-जागता इतिहास है। इसकी ऊंची-ऊंची दीवारों, विशाल दरवाजों, मंदिरों और जलकुंडों के बीच वीरता की ऐसी कहानियां गूंजती हैं, जो आज भी दिलों को छू जाती हैं।यह किला उन तमाम वीरों और वीरांगनाओं का स्मारक है, जिन्होंने अपने धर्म, अपनी जमीन और अपने स्वाभिमान के लिए प्राणों का बलिदान दिया। और यही कारण है कि चित्तौड़गढ़ किले को केवल एक पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि एक पवित्र स्थल माना जाता है।
निष्कर्ष
चित्तौड़गढ़ किला आज भी अपने भीतर सदियों पुराना दर्द और गौरव समेटे हुए है। हर पत्थर, हर दीवार, और हर गलियारा उस इतिहास का साक्षी है जिसमें प्रेम, बलिदान और शौर्य के अनगिनत अध्याय दर्ज हैं। अगर आप कभी चित्तौड़गढ़ जाएं, तो वहां की हवाओं में बहते वीरांगनाओं के बलिदान की गंध को जरूर महसूस करिए।यह न सिर्फ एक यात्रा होगी, बल्कि इतिहास की आत्मा से संवाद करने जैसा एक अद्भुत अनुभव भी होगा — जहां हर कदम पर आपको वीरता के साथ-साथ उन चीखों की अनुगूंज सुनाई देगी, जिन्होंने चित्तौड़ को अमर बना दिया।