किसी इमारत में नहीं बल्कि ट्रेन के कोच में चलता है ये स्कूल, हकीकत जानकर दंग रह जाएंगे

कर्नाटक के एक सरकारी स्कूल ने शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐसा अनोखा प्रयोग किया है, जिसकी चर्चा पूरे राज्य में हो रही है। यह कहानी है नानजंगूद तालुका के तैयूर ग्राम पंचायत के एक छोटे से गांव हरोपुरा की, जहां एक उच्च प्राथमिक विद्यालय में छात्रों की संख्या दिन-ब-दिन घटती जा रही थी। बच्चे स्कूल आना बंद कर रहे थे, और नए दाखिले लगभग रुक चुके थे। लेकिन स्कूल के प्रिंसिपल और तीन शिक्षकों ने इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए एक बेहद रचनात्मक और दिलचस्प तरीका अपनाया – उन्होंने स्कूल की इमारत को एक "चलती ट्रेन" की शक्ल दे दी।
बच्चों के मन में स्कूल के प्रति उत्साह जगाने की अनोखी पहल
हरोपुरा गांव का यह सरकारी स्कूल पहले शिक्षा विभाग के लिए चिंता का विषय बना हुआ था। लेकिन स्कूल के प्रिंसिपल बसवानायक और उनके तीन साथी शिक्षक – डोरेस्वामी, तारणम और नेत्रावती – ने बच्चों की रुचि फिर से जगाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने मिलकर स्कूल के कमरों की दीवारों को इस तरह रंगवा दिया कि पूरी इमारत किसी रेलगाड़ी के कोच की तरह दिखने लगी। दीवारों पर खिड़कियां, दरवाजे और रेलगाड़ी के प्रतीकात्मक चिन्ह बनाकर एक चलती ट्रेन जैसा दृश्य तैयार किया गया।
अपने ही पैसे से किया खर्च, बनाया स्कूल को आकर्षक
इस पूरे बदलाव के लिए शिक्षकों ने किसी सरकारी मदद का इंतज़ार नहीं किया। उन्होंने अपनी जेब से 25,000 रुपये इकट्ठा किए और मैसूरु से दो पेंटिंग विशेषज्ञों को बुलाकर स्कूल की सूरत बदल दी। अब यह स्कूल न केवल गांव के बच्चों बल्कि आसपास के इलाकों के लोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बन गया है।
ट्रेन कभी देखी नहीं, अब ट्रेन में पढ़ाई का अनुभव
इस गांव की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहां न तो रेल सेवा है और न ही बस की सुविधा। गांव इतना पिछड़ा हुआ है कि लोगों को कहीं भी आने-जाने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। कई बच्चों ने जीवन में कभी असली ट्रेन नहीं देखी। लेकिन अब वे रोज़ एक ‘ट्रेन’ में पढ़ाई करने आते हैं।
बच्चे खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्हें चलती ट्रेन जैसे माहौल में पढ़ाई का अनुभव मिल रहा है। इससे उनकी सीखने की इच्छा और उपस्थिति दोनों में जबरदस्त इजाफा हुआ है।
शिक्षा विभाग की चिंता हुई दूर
स्कूल में पहली से सातवीं कक्षा तक कुल 55 बच्चे पढ़ते हैं। पहले कई अभिभावकों ने अपने बच्चों का दाखिला दूसरे गांव के निजी स्कूलों में करवा दिया था, लेकिन अब वही बच्चे फिर से इस सरकारी स्कूल की ओर लौट रहे हैं। इस बदलाव ने शिक्षा विभाग की बड़ी चिंता को भी दूर कर दिया है।
स्कूल के प्रिंसिपल बसवानायक बताते हैं कि अब बच्चों में स्कूल के प्रति उत्साह है। वे समय पर आते हैं, स्कूल में रुचि लेकर पढ़ाई करते हैं और यहां तक कि स्कूल का रख-रखाव भी खुद करने लगे हैं। बच्चों को यह ट्रेन वाला स्कूल इतना पसंद आ गया है कि वे छुट्टी के दिन भी स्कूल आने की ज़िद करते हैं।
निष्कर्ष
हरोपुरा गांव के इस सरकारी स्कूल की कहानी देशभर के उन स्कूलों के लिए प्रेरणा बन सकती है जहां बच्चों की संख्या लगातार घट रही है। शिक्षा केवल किताबों से नहीं, बल्कि रचनात्मक सोच और लगन से आगे बढ़ती है। एक सादगी भरी पहल, सीमित संसाधन और शिक्षकों की सकारात्मक सोच ने यहां शिक्षा का एक नया अध्याय लिख दिया है – जो यह सिखाता है कि अगर नीयत और सोच सही हो, तो बदलाव लाना असंभव नहीं।