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इस गांव में जल्द आने वाली है प्रलय, जमीन पिघलने से मौत के मुहाने पर खड़े हैं लोग

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आज हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहां पृथ्वी की जलवायु में जो परिवर्तन हो रहा है, वह केवल मौसम की मामूली उठा-पटक नहीं, बल्कि एक बड़ा और खतरनाक संकेत है। इस परिवर्तन को वैज्ञानिकों ने "जलवायु परिवर्तन" (Climate Change) नाम दिया है, लेकिन यह नाम जितना सामान्य लगता है, इसकी गंभीरता उतनी ही भयावह है। पृथ्वी के तमाम हिस्सों में इसका असर दिखाई देने लगा है और इंसानी सभ्यता के लिए यह एक बड़ा खतरा बनकर उभर रहा है।

अगर इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले समय में या तो इंसान का वजूद मिट सकता है या फिर यह खूबसूरत नीला ग्रह वीरान हो सकता है। यही नहीं, जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट संकेत अब पूरी दुनिया में दिखने लगे हैं, और ग्रीनलैंड का एक छोटा-सा कस्बा 'कानाक' इसका जीवंत उदाहरण है।

क्या है कानाक और क्यों है यह खास?

ग्रीनलैंड के उत्तर-पश्चिमी छोर पर स्थित कानाक (Qaanaaq) एक छोटा-सा कस्बा है, जिसकी आबादी करीब 650 है। यह दुनिया के सबसे उत्तरी क्षेत्रों में से एक है, जहां इंसान बसते हैं। इस कस्बे के लोग वर्षों से बेहद कठोर परिस्थितियों में जीते आ रहे हैं — जहां साल दर साल तापमान शून्य से नीचे ही रहता है। लेकिन अब यहां की कठिन ज़िंदगी और भी मुश्किल होती जा रही है।

यहां का तापमान अक्सर -20 से -30 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है और लंबे समय तक बना रहता है। इस अत्यधिक ठंड की वजह से यह इलाका "पर्माफ्रॉस्ट" यानी हमेशा जमी रहने वाली जमीन के रूप में जाना जाता है। इसी पर्माफ्रॉस्ट की वजह से यहां इमारतें बर्फ पर ही बनाई जाती हैं — क्योंकि नीचे की जमीन सालों-साल जमकर ठोस बनी रहती है।

अब पिघलने लगी है पर्माफ्रॉस्ट की जमीन

जलवायु परिवर्तन ने सबसे बड़ा प्रहार इसी पर्माफ्रॉस्ट पर किया है। अब वह बर्फ जो पहले दशकों तक जमी रहती थी, वह गर्मियों में तेजी से पिघलने लगी है। इससे यहां की जमीन अस्थिर हो गई है। मकानों में दरारें पड़ने लगी हैं, दीवारें टूट रही हैं और फर्श धंस रहा है।

कानाक कस्बे में रहने वाले ओर्ला क्लीस्ट जैसे कई लोगों के मकानों को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। ओर्ला के लिविंग रूम और बाथरूम की दीवारों में दरारें हैं। बाथरूम का फर्श उखड़ चुका है और टाइलें टूट चुकी हैं। रसोई की दीवारें इतनी फट चुकी हैं कि सर्द हवाएं सीधी कमरे में प्रवेश करती हैं। इन हवाओं से बचने के लिए लोग दीवारों पर टेप चिपका रहे हैं, ताकि किसी तरह ठंड से खुद को बचा सकें।

वैज्ञानिक चेतावनियां

कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक सेबेस्टियन जैस्ट्रज्नी के अनुसार, मिट्टी और दलदली इलाकों में पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का खतरा ज्यादा होता है क्योंकि वहां नमी अधिक होती है। जब बर्फ जमती और फिर पिघलती है तो जमीन ऊपर-नीचे हिलती रहती है। यह गतिविधि इमारतों की नींव को नुकसान पहुंचाती है — वे धंसती हैं, झुकती हैं या गिर जाती हैं।

1950 के दशक में बसाया गया कानाक, ऐसी ही मिट्टी और दलदली जमीन पर बसा है। तब शायद किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक दिन ये ज़मीन पिघलने लगेगी। लेकिन अब वो समय आ चुका है।

बढ़ता तापमान: खतरे की घंटी

साल 2018 में ग्रीनलैंड में कई ऐसे दिन देखे गए जब तापमान माइनस 23 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो 1958 से 2002 के बीच के औसत तापमान से कहीं अधिक था। यह एक संकेत है कि आर्कटिक क्षेत्र में तापमान का स्तर लगातार असामान्य रूप से बढ़ रहा है।

बर्फ का जमना और फिर पिघलना अब साल में कई बार हो रहा है, जबकि पहले यह दशकों में एक बार हुआ करता था। इस जलवायु चक्र के तेज़ होने से न केवल इमारतें खतरे में हैं, बल्कि पूरी पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रही है। यहां रहने वाले लोग, जानवर, पक्षी, पेड़-पौधे — सभी संकट में हैं।

यह केवल कानाक की समस्या नहीं

ग्रीनलैंड के कानाक कस्बे की समस्या अब केवल स्थानीय नहीं रही। यह एक वैश्विक चेतावनी है। आर्कटिक क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, जिससे तटीय शहर डूब सकते हैं। गर्मी की लहरें और सूखा बढ़ेगा, जिससे फसलें बर्बाद होंगी और खाद्य संकट गहराएगा।

आज अगर हम कानाक को केवल एक खबर की तरह पढ़कर भूल जाते हैं, तो यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरनाक होगा। क्योंकि जो संकट आज कानाक में है, वह कल हमारे दरवाजे पर भी दस्तक दे सकता है।

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि आज की हकीकत है। ग्रीनलैंड का कानाक कस्बा इस सच्चाई का ठोस उदाहरण है कि कैसे पृथ्वी की बदलती आबो-हवा इंसानी जीवन को चुनौती दे रही है। अब समय आ गया है कि सरकारें, वैज्ञानिक समुदाय, उद्योग जगत और आम नागरिक — सभी मिलकर इस समस्या से लड़ने के लिए ठोस कदम उठाएं।

हमें ऊर्जा स्रोतों में बदलाव, कार्बन उत्सर्जन में कटौती, और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में गंभीरता से काम करना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं जब कानाक जैसी कहानियां दुनिया के हर कोने से सुनाई देने लगेंगी — लेकिन तब शायद कुछ कर पाना बहुत देर हो चुका होगा।

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