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संस्कृत भाषा के दीवाने हैं इन गांवों के लोग, बोलचाल में करते हैं इस्तेमाल

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आज के समय में जहां अंग्रेजी भाषा का बोलबाला है, वहीं भारत के हिमाचल प्रदेश के कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां संस्कृत भाषा आज भी जीवंत है। यह बात चौंकाने वाली जरूर लगती है, लेकिन सच है। हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले की चंद्रभागा घाटी में बसे गोशाला और जाहलमा गांव के लोग आज भी अपनी रोजमर्रा की बातचीत में संस्कृत भाषा का प्रयोग करते हैं।

यहां के लोग ना सिर्फ संस्कृत बोलते हैं, बल्कि इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान के रूप में सहेजकर रखे हुए हैं। जबकि शहरी भारत में संस्कृत को सिर्फ धार्मिक कर्मकांडों या विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली विषय के रूप में देखा जाता है।

चिनाली: संस्कृत का जीवंत रूप

इन गांवों में बोली जाने वाली इस भाषा को स्थानीय लोग ‘चिनाली’ कहते हैं। हालांकि भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि चिनाली वास्तव में संस्कृत का एक प्राचीन और मौलिक रूप है। यहां के लोग सदियों से इस भाषा को न सिर्फ बोलते आए हैं, बल्कि गाने, लोकगीत, रीति-रिवाज और परंपराओं में भी इसका प्रयोग करते हैं।

चनाल समुदाय के लोग इस भाषा को अपनी पहचान का हिस्सा मानते हैं और अगली पीढ़ी को भी संस्कृत सिखाते हैं। इसी कारण इन गांवों में आज भी बच्चे और बुजुर्ग संस्कृत जैसी भाषा में संवाद करते दिखाई देते हैं।

भाषा एवं संस्कृति विभाग की पहल

हिमाचल प्रदेश का भाषा एवं संस्कृति विभाग अब इस अनमोल धरोहर को संरक्षित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। विभाग इन गांवों में स्टडी सर्वे करवाने जा रहा है ताकि यहां की भाषा, संस्कृति, परंपराएं, लोकगीत और जीवनशैली को रिकॉर्ड किया जा सके।

इसके तहत स्थानीय ग्रामीणों को रिसोर्स पर्सन बनाकर उनका अनुभव और ज्ञान दस्तावेजी रूप में सहेजा जाएगा। यही नहीं, सरकार की योजना इन गांवों को सांस्कृतिक पर्यटन से जोड़ने की भी है ताकि देश-दुनिया से लोग यहां आकर भारत की भाषाई विरासत को करीब से देख सकें।

संस्कृत से जुड़ी एक मजबूत सामाजिक बुनियाद

गोशाला और जाहलमा गांवों के लोग यह मानते हैं कि संस्कृत सिर्फ एक भाषा नहीं है, बल्कि यह उनके संस्कारों, मूल्यों और जीवन के सिद्धांतों से जुड़ी हुई है। इसी कारण यहां शादी-विवाह से लेकर दैनिक बातचीत तक में संस्कृत के शब्दों और वाक्य संरचना का इस्तेमाल किया जाता है।

वयोवृद्ध इतिहासकार छेरिंग दोरजे के अनुसार, चनाल समुदाय भले ही इस भाषा को ‘चिनाली’ के नाम से पुकारता है, लेकिन इसकी जड़ें पूरी तरह संस्कृत में निहित हैं। दोरजे बताते हैं कि लाहौल से कुछ लोग चंबा के पांगी और जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ क्षेत्रों में भी जाकर बसे हैं, लेकिन वहां भी चिनाली भाषा का प्रयोग किया जाता है।

पर्यटन के जरिये नई पहचान

हिमाचल प्रदेश सरकार का उद्देश्य अब इस तरह की भाषाई और सांस्कृतिक विरासत को पर्यटन के माध्यम से नई पहचान दिलाना है। ‘पुरानी राहें’ नामक एक विशेष कार्यक्रम के तहत प्रदेश की लगभग 1200 विरासत स्थलों को पर्यटन मानचित्र पर लाने की तैयारी है।

इसके लिए सभी जिलों के उपायुक्तों से 100-100 ऐसी विरासतों की सूची मांगी गई है जो अब तक अनदेखी रही हैं। गोशाला और जाहलमा जैसे गांव इस सूची में शामिल होकर देश और दुनिया को बता सकते हैं कि भारत में संस्कृत आज भी जीवित है, सिर्फ मंदिरों और ग्रंथों में नहीं, बल्कि जन-जीवन की भाषा के रूप में।

संस्कृत को लेकर समाज की सोच बदलने की जरूरत

आज की पीढ़ी संस्कृत को एक पुरानी, कठिन और अनुपयोगी भाषा मानती है। स्कूलों में भी इसे एक वैकल्पिक विषय या ‘कम काम की भाषा’ समझा जाता है। लेकिन गोशाला और जाहलमा जैसे गांव यह उदाहरण पेश करते हैं कि अगर कोई भाषा संस्कृति से जुड़ी हो, व्यवहार में हो और अगली पीढ़ी तक सिखाई जाए, तो वह कभी खत्म नहीं होती।

संस्कृत सिर्फ पूजा-पाठ की भाषा नहीं है। यह एक विज्ञान आधारित, व्याकरणिक रूप से परिपूर्ण और विश्व की सबसे समृद्ध भाषाओं में से एक है। इसे जीवित रखना भारत की संस्कृतिक जिम्मेदारी है।

निष्कर्ष: आधुनिकता के बीच परंपरा की मिसाल

गोशाला और जाहलमा गांव आज भी दुनिया को यह संदेश दे रहे हैं कि अगर समाज चाहे तो वह आधुनिकता के साथ-साथ अपनी परंपराओं और भाषाई धरोहर को भी जीवित रख सकता है। यह गांव सिर्फ हिमाचल की ही नहीं, पूरे भारत की सांस्कृतिक ताकत का प्रतीक हैं।

"भाषा कोई बोझ नहीं होती, यह हमारी पहचान और जड़ों से जुड़ाव का माध्यम होती है।"
गोशाला-जाहलमा जैसे गांव इस बात को बिना कुछ कहे, केवल संस्कृत बोलकर साबित कर रहे हैं।

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