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मुस्लिम पिता और बेटे ने पेश की भाईचारे की मिसाल, बिना मजदूरी लिए 100 दिन में बना दिया मंदिर

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भारत विविधताओं का देश है, जहां धर्म, जाति और भाषा में भिन्नता होने के बावजूद इंसानियत की डोर हमें जोड़े रखती है। देश में आए दिन ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जो यह साबित करते हैं कि जब बात मानवता की आती है, तो धर्म की दीवारें अपने आप गिर जाती हैं। ऐसा ही एक प्रेरणादायक उदाहरण हाल ही में मध्यप्रदेश के इटारसी से सामने आया है, जहां एक मुस्लिम पिता-पुत्र की जोड़ी ने सौहार्द और भाईचारे की ऐसी मिसाल पेश की, जिसने पूरे समाज को एक बार फिर इंसानियत की याद दिला दी।

100 दिन बिना मजदूरी किए मंदिर निर्माण

यह कहानी है मुस्लिम कारीगर रहमान और उनके बेटे रिजवान की, जिन्होंने इटारसी के पास एक गांव में स्थित मंदिर का निर्माण कार्य बिना किसी मेहनताना लिए पूरे 100 दिन तक किया। यह मंदिर टीचर सावित्री द्वारा अपनी मां की अंतिम इच्छा पूरी करने के उद्देश्य से बनवाया जा रहा था। रहमान और रिजवान पेशे से राजमिस्त्री हैं और आमतौर पर दिहाड़ी मजदूरी करके घर चलाते हैं, लेकिन इस काम को उन्होंने सेवा और सौभाग्य मानकर किया।

मंदिर निर्माण के पीछे मां की अंतिम इच्छा

सावित्री, जो केसला एक्सीलेंस स्कूल में पिछले 15 साल से अध्यापन कार्य कर रही हैं, ने बताया कि यह मंदिर वह अपनी मां भागवती शिवलाल की याद में बनवा रही थीं। उनकी मां ने करीब 35 साल पहले गांव में एक मढ़िया बनवाकर उसमें ईष्ट देवी सिद्धिदात्री की प्रतिमा स्थापित की थी। मां की इच्छा थी कि भविष्य में वहां एक सुंदर मंदिर बने। सावित्री बताती हैं कि उन्होंने अपनी जमा पूंजी में से 5 लाख रुपये मंदिर के लिए खर्च किए।

पिता-पुत्र की नि:स्वार्थ सेवा

रहमान और रिजवान जब इस कार्य से जुड़े, तो सावित्री ने उन्हें मजदूरी देने की बात की, लेकिन उन्होंने विनम्रता से यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। रहमान ने कहा, "हम इसे एक सेवा मानकर कर रहे हैं। जब इंसान किसी नेक काम से जुड़ता है, तो मजहब आड़े नहीं आता।" रहमान ने अपने बेटे रिजवान को बीच-बीच में अन्य कार्यों पर भेजा, ताकि परिवार का गुजारा चलता रहे।

जमीन का तोहफा और तिलक सम्मान

इस भावनात्मक सेवा को देखकर सावित्री इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने अपनी छह एकड़ जमीन में से एक एकड़ जमीन रहमान और रिजवान के नाम करने का ऐलान कर दिया। यही नहीं, मंदिर के उद्घाटन समारोह में यज्ञशाला का आयोजन किया गया, जहां स्थानीय ब्राह्मणों ने रहमान और रिजवान को तिलक कर सम्मानित भी किया। यह दृश्य सामाजिक सौहार्द की अनूठी मिसाल बन गया।

सौहार्द की मिसाल, समाज को दिया संदेश

यह घटना सिर्फ एक मंदिर के निर्माण की कहानी नहीं है, बल्कि यह संदेश है कि भारत की असली ताकत उसकी विविधता में एकता है। यह कहानी बताती है कि जब एक मुस्लिम कारीगर बिना स्वार्थ के एक हिंदू मंदिर बनाता है, तो धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों को जवाब मिल जाता है। यह भाईचारा ही भारत की आत्मा है।

मदर्स डे पर पूरी हुई मां की इच्छा

सावित्री बताती हैं कि उन्होंने जानबूझकर मंदिर निर्माण का समापन मदर्स डे के दिन कराया, ताकि यह उनकी मां को श्रद्धांजलि भी बन सके। उन्होंने कहा, "मां हमेशा कहती थीं कि मंदिर सिर्फ ईंट-पत्थर से नहीं, भावनाओं से बनता है। रहमान और रिजवान ने इस मंदिर में भावनाओं की ईंटें लगाईं हैं।"

निष्कर्ष:

जब समाज में धर्म के नाम पर नफरत की बातें होती हैं, तब ऐसे उदाहरण हमें याद दिलाते हैं कि इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। इटारसी के रहमान और रिजवान ने यह साबित कर दिया कि भारत का दिल अभी भी जिंदा है, जो हर मजहब को एक ही नजर से देखता है। यह सिर्फ मंदिर नहीं बना, बल्कि समाज के बीच एक पुल बना, जो हमें जोड़ता है – न कि तोड़ता।

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