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100 दिनों में हुआ था 8 लाख लोगों का क़त्लेआम, लाखों औरतों का अपहरण कर बनाया सेक्स-स्लेव

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जब इंसान अपनी इंसानियत खो बैठता है और जब कोई सरकार खुद ही अपने ही नागरिकों के खून की प्यासी हो जाए, तब नतीजा होता है एक सुनियोजित नरसंहार – एक ऐसा काला अध्याय, जिसे इतिहास कभी भूल नहीं सकता। ऐसा ही एक भीषण जनसंहार हुआ था 1994 में अफ्रीकी देश रवांडा में, जब महज 100 दिनों के भीतर ही 8 लाख से अधिक लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई। यह नरसंहार इस कदर भयावह था कि इसमें पड़ोसी ने पड़ोसी की हत्या की, रिश्तेदारों ने एक-दूसरे को मौत के घाट उतार दिया और कुछ हूतू पुरुषों ने अपनी ही तुत्सी पत्नियों की हत्या कर दी।

कहां और क्यों हुआ यह नरसंहार?

यह नरसंहार पूर्वी अफ्रीकी देश रवांडा में हुआ, जहां दो प्रमुख जातीय समुदाय – हूतू (Hutu) और तुत्सी (Tutsi) – वर्षों से साथ रह रहे थे, लेकिन आपसी राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक टकरावों ने इन दोनों समुदायों के बीच इतनी गहरी खाई पैदा कर दी कि 1994 में यह मतभेद एक खूनी संघर्ष में बदल गया।

रवांडा की आबादी में लगभग 85% हूतू और मात्र 14% तुत्सी थे। हालांकि संख्या में कम होने के बावजूद, तुत्सी समुदाय ने लंबे समय तक देश की सत्ता और प्रशासनिक व्यवस्था पर नियंत्रण बनाए रखा। इससे हूतू समुदाय में नाराज़गी और विद्रोह की भावना पनपने लगी।

कैसे शुरू हुआ नरसंहार?

6 अप्रैल 1994 को रवांडा के हूतू राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति केपरियल नतारयामिरा को ले जा रहा विमान रवांडा की राजधानी किगाली के पास गिरा दिया गया। इस विमान हादसे में दोनों नेताओं की मृत्यु हो गई। इस घटना के पीछे किसका हाथ था, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया है।

कुछ लोग इसे हूतू चरमपंथियों की साजिश मानते हैं, ताकि वे तुत्सी समुदाय के खिलाफ नरसंहार शुरू करने का बहाना बना सकें। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि यह हमला तुत्सी समर्थित Rwandan Patriotic Front (RPF) ने किया था।

जो भी हो, इस घटना के अगले ही दिन 7 अप्रैल 1994 को रवांडा में नरसंहार की शुरुआत हो गई, जिसमें तुत्सी अल्पसंख्यकों और उनके हुतू समर्थकों को निशाना बनाया गया। यह खूनी खेल 100 दिनों तक चला और 15 जुलाई 1994 को समाप्त हुआ।

नरसंहार को मिला सरकारी समर्थन

इस नरसंहार को किसी उन्मादी भीड़ ने नहीं, बल्कि सरकारी संरक्षण प्राप्त चरमपंथी संगठनों ने अंजाम दिया। हूतू चरमपंथियों ने एक रेडियो स्टेशन RTLM (Radio Télévision Libre des Mille Collines) शुरू किया, जिससे पूरे देश में हुतू समुदाय को भड़काया गया।

रेडियो पर खुलेआम यह कहा गया, "तिलचट्टों को मारो", जिसमें 'तिलचट्टों' का मतलब तुत्सी समुदाय से था। यह रेडियो चैनल केवल नफरत फैलाने का ही नहीं, बल्कि हत्या के निर्देश देने का माध्यम बन गया। चरमपंथी गुटों को सरकारी स्तर पर हथियार मुहैया कराए गए, और उन्हें अपने ही पड़ोसियों की हत्या करने की खुली छूट दी गई।

पहचान पत्र बना मौत का फरमान

उस दौर में हर रवांडाई नागरिक के पास एक पहचान पत्र (ID) होता था, जिसमें उसकी जातीय पहचान – हूतू, तुत्सी या टुवा – का स्पष्ट उल्लेख होता था। नरसंहार के दौरान सड़कों पर नाकाबंदी की गई, और लोगों से पहचान पत्र दिखवाकर तुत्सी लोगों की माचेटी, भालों और बंदूकों से हत्या कर दी जाती थी।

पड़ोसी ने पड़ोसी को मारा

नरसंहार की सबसे दर्दनाक बात यह रही कि इसमें कोई विदेशी दुश्मन नहीं था। यह एक घरेलू नरसंहार था, जिसमें लोगों ने अपने ही दोस्तों, रिश्तेदारों और यहां तक कि जीवनसाथियों की हत्या कर दी। कई हूतू पुरुषों ने अपनी तुत्सी पत्नियों की इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें खुद मारा जा सकता था।

महिलाओं और बच्चों की भी नहीं बख्शा

इस नरसंहार में लाखों महिलाओं का अपहरण कर उन्हें यौन दासता (Sex Slavery) के लिए इस्तेमाल किया गया। हजारों महिलाएं महीनों तक रेप कैंप्स में बंद रहीं, उन्हें प्रतिदिन दरिंदगी का शिकार बनाया गया। इन अपराधों को देखकर भी दुनिया खामोश रही।

नरसंहार कैसे रुका?

जब रवांडा में हद से ज्यादा खून बह चुका था, तब युगांडा समर्थित Rwandan Patriotic Front (RPF) ने मोर्चा संभाला। आरपीएफ़ के लड़ाके धीरे-धीरे पूरे देश पर नियंत्रण पाने लगे और 4 जुलाई 1994 को उन्होंने राजधानी किगाली पर कब्जा कर लिया। इसके बाद 15 जुलाई को नरसंहार थमा

हालांकि, कई रिपोर्ट्स के अनुसार आरपीएफ़ ने भी इस दौरान बदले की कार्रवाई में हज़ारों हूतू लोगों की हत्या की, जिससे हालात और भी बिगड़ गए। अंततः हज़ारों हूतू नागरिकों को देश छोड़कर भागना पड़ा और तुत्सी समुदाय सत्ता में लौट आया

अंतरराष्ट्रीय समुदाय की खामोशी

इतने बड़े नरसंहार के बावजूद, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया बेहद धीमी और निराशाजनक रही। संयुक्त राष्ट्र (UN) और अमेरिका सहित कई देशों ने रवांडा में तत्काल हस्तक्षेप नहीं किया। बाद में संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने स्वीकार किया कि रवांडा नरसंहार को रोका जा सकता था, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण ऐसा नहीं हो पाया।

नरसंहार के बाद की स्थिति

नरसंहार के बाद रवांडा में हालात बेहद भयावह हो चुके थे:

  • लगभग 20 लाख लोग बेघर हो चुके थे

  • लाखों बच्चों ने अपने माता-पिता को खो दिया

  • सामाजिक ताना-बाना पूरी तरह बिखर चुका था

  • देश में अविश्वास और भय का माहौल था

लेकिन धीरे-धीरे रवांडा ने पुनर्निर्माण की ओर कदम बढ़ाए। आज रवांडा अफ्रीका के सबसे विकसित देशों में गिना जाता है, लेकिन 1994 का नरसंहार अब भी उसकी आत्मा पर एक गहरा घाव बना हुआ है।

निष्कर्ष: इतिहास की सबसे काली रात

रवांडा नरसंहार हमें यह सिखाता है कि जब नफरत, जातीय द्वेष और सत्ता की भूख हावी हो जाती है, तो इंसान किस हद तक गिर सकता है। यह केवल तुत्सी या हूतू की कहानी नहीं, बल्कि इंसानियत की हार की कहानी है।

आज जब हम 1994 के उस भीषण नरसंहार को याद करते हैं, तो केवल आँकड़े नहीं, बल्कि उन 8 लाख मासूमों की चीखें हमें याद आती हैं, जिन्होंने केवल इसलिए जान गंवाई क्योंकि उनका जन्म एक अलग जाति में हुआ था।

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