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यहां महिलाएं चंद पैसों के लिए दे देती हैं कोख की कुर्बानी, पीरियड्स पर लगता है 500 प्रतिदिन का जुर्माना

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एक ओर देश की सरकारें विकास और महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े वादे करती हैं, तो दूसरी ओर भारत के कुछ इलाकों में ऐसी भी महिलाएं हैं जिन्हें महज़ कुछ पैसों के लिए अपनी कोख तक की कुर्बानी देनी पड़ती है। ये कहानी किसी दूसरे देश की नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के बीड जिले की है। यहां की गन्ना कटाई में काम करने वाली महिलाएं इतनी मजबूर हैं कि वे मासिक धर्म से बचने के लिए अपना गर्भाशय (uterus) निकलवा देती हैं।

ये महिलाएं महज इसलिए ऐसा कदम उठाती हैं क्योंकि यदि वे पीरियड्स की वजह से काम से एक दिन की भी छुट्टी लें, तो ठेकेदार उनसे ₹500 प्रतिदिन जुर्माना वसूलता है।

बीड: जहां औरतें कोख गंवा रही हैं

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र का बीड जिला लंबे समय से सूखे, बेरोजगारी और कर्ज की त्रासदी झेल रहा है। यहां के किसान और मजदूर पहले ही आर्थिक तंगी से बेहाल हैं, लेकिन इन सबसे ज़्यादा दर्दनाक हालात महिलाओं के हैं। बीड जिले के कई गांवों में गर्भाशय निकाल चुकी महिलाओं की संख्या इतनी ज्यादा है कि वहां इसे सामान्य बात मान लिया गया है।

यहां की महिलाएं गन्ने की कटाई में लगी होती हैं। इस प्रक्रिया में महिलाओं और पुरुषों को एक जोड़ी (unit) के रूप में काम दिया जाता है और एक निश्चित समय में तय मात्रा में गन्ना काटना होता है। यदि जोड़ी में से कोई एक भी बीमार पड़ जाए या छुट्टी ले ले, तो उन्हें हर दिन का ₹500 तक जुर्माना भरना पड़ता है।

ठेकेदार बनते हैं दबाव का कारण

गांवों में काम ठेकेदारों के जरिए दिया जाता है। गन्ने की कटाई के लिए ये ठेकेदार दूर-दराज के इलाकों से मजदूरों को लाते हैं। ये ठेकेदार महिलाओं पर दबाव बनाते हैं कि वे काम में कोई रुकावट न आने दें। पीरियड्स के दौरान 2-3 दिन की छुट्टी लेना अगर लगातार दो महीनों तक हुआ, तो उनकी कमाई आधी से भी कम हो जाती है।

ऐसे में ठेकेदार उन्हें गर्भाशय निकलवाने की सलाह देते हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक, कुछ ठेकेदार तो इस ऑपरेशन का खर्चा खुद उठाने की बात करते हैं, लेकिन बाद में यह पैसा महिलाओं की मजदूरी से काट लिया जाता है। इस तरह, काम के बोझ और आर्थिक मजबूरी के तले महिलाएं अपने मातृत्व का त्याग कर देती हैं।

स्वास्थ्य पर भारी असर

गर्भाशय निकलवाना एक गंभीर सर्जिकल प्रक्रिया होती है, जिसे हिस्टेरेक्टॉमी कहा जाता है। इस प्रक्रिया के बाद महिलाओं को कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है—जैसे हार्मोनल असंतुलन, कमज़ोरी, मानसिक तनाव, हड्डियों की कमजोरी और यहां तक कि समय से पहले बुढ़ापा।

लेकिन इन सबके बावजूद, महिलाओं के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। उन्हें यह सब सहना पड़ता है, क्योंकि उनके सामने सवाल होता है—भूख मिटाने का।

महिलाओं की मजबूरी या व्यवस्था की विफलता?

बीमारी, पीरियड्स और प्रसव जैसी प्राकृतिक घटनाओं के लिए अगर महिलाओं को दंडित किया जाए, तो यह किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक स्थिति है। यहां सवाल महिलाओं की मजबूरी का नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की विफलता का है जो उन्हें काम करने के लिए सुरक्षित, सम्मानजनक और स्वास्थ्यपूर्ण माहौल तक नहीं दे पाई।

जिस देश में महिला सशक्तिकरण पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं, वहां आज भी महिलाएं अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं।

सरकारी योजनाएं और हकीकत

सरकार की ओर से कई योजनाएं चल रही हैं जैसे:

  • प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना

  • जननी सुरक्षा योजना

  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन

लेकिन बीड जैसी जगहों पर इन योजनाओं की जमीनी हकीकत बहुत कमजोर है। कई महिलाओं को आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिल पातीं। उनके पास सही जानकारी नहीं होती, और अगर होती भी है, तो सिस्टम की लापरवाही और भ्रष्टाचार आड़े आ जाता है।

सामाजिक और कानूनी पहलू

भारत का श्रम कानून किसी भी मज़दूर से अस्वास्थ्यकर या अमानवीय परिस्थितियों में काम कराने की इजाजत नहीं देता। लेकिन इन महिलाओं के लिए न तो कोई यूनियन है, न वकील, और न ही कोई सुनवाई करने वाला अधिकारी। उनके जीवन में कानून सिर्फ किताबों में है।

साथ ही, महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों ने इस मुद्दे पर आवाज़ उठाई है, लेकिन अब तक कोई ठोस सरकारी कदम सामने नहीं आया है। सामाजिक स्तर पर भी, कई बार इन महिलाओं को ही बुरा और दोषी ठहराया जाता है।

क्या है समाधान?

  1. स्थानीय प्रशासन को जिम्मेदारी से हस्तक्षेप करना चाहिए, ताकि ठेकेदारों द्वारा की जा रही ज़्यादतियों पर रोक लग सके।

  2. महिलाओं को मुफ्त और सुलभ स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएं।

  3. पीरियड्स के दौरान सवेतन छुट्टी का प्रावधान मजदूर महिलाओं के लिए भी लागू किया जाए।

  4. गर्भाशय सर्जरी जैसे निर्णयों पर मेडिकल काउंसलिंग और निगरानी अनिवार्य की जाए।

  5. महिलाओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएं ताकि वे अपनी सेहत, अधिकार और विकल्पों के बारे में जान सकें।

निष्कर्ष

बीड की इन महिलाओं की कहानी किसी एक जिले की नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम की कहानी है जो गरीब, मेहनती और वंचित वर्ग के प्रति अनदेखी और असंवेदनशीलता का प्रतीक बन चुका है।

जब तक सरकारें और समाज इस समस्या को केवल आंकड़ों और भाषणों तक सीमित रखेंगे, तब तक महिलाओं की कोख यूं ही कुर्बान होती रहेगी।

आवश्यक है कि देश की आर्थिक और सामाजिक योजनाओं में इन अदृश्य और अनसुनी आवाजों को भी जगह मिले—वरना विकास का कोई भी दावा अधूरा ही रहेगा।

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