
भारत विविधताओं और परंपराओं का देश है। यहां हर राज्य, हर गांव और हर समुदाय की अपनी संस्कृति और मान्यताएं हैं। कुछ परंपराएं ऐतिहासिक महत्व रखती हैं, तो कुछ केवल सामाजिक आस्था और अंधविश्वास पर आधारित होती हैं। लेकिन कुछ ऐसी भी प्रथाएं आज भी देश के कुछ हिस्सों में निभाई जा रही हैं जो न केवल वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हैं बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी शर्मनाक और अस्वीकार्य हैं।
ऐसी ही एक अजीब परंपरा आज भी भारत के कुछ गांवों में निभाई जाती है – बारिश के लिए लड़कियों को निर्वस्त्र कर घुमाना। यह न सिर्फ स्त्री सम्मान और मानवाधिकारों के खिलाफ है, बल्कि यह दिखाता है कि आज 21वीं सदी में भी हम कहीं न कहीं अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं।
बारिश न होने पर देवताओं को मनाने की कोशिश
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां अधिकांश लोग खेती पर निर्भर हैं। खेतों को उपजाऊ और हरा-भरा बनाए रखने के लिए समय पर बारिश होना बहुत जरूरी होता है। लेकिन जब मौसम साथ नहीं देता और बारिश नहीं होती, तो कई ग्रामीण क्षेत्रों में लोग इसका कारण वैज्ञानिक या पर्यावरणीय न मानकर देवताओं की नाराजगी मानते हैं।
इसी सोच के चलते कई इलाकों में देवताओं को खुश करने के लिए तरह-तरह के धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। कहीं यज्ञ किए जाते हैं, कहीं मृगशिरा नक्षत्र में पूजा-पाठ होता है। लेकिन कुछ जगहों पर इस आस्था की आड़ में निर्दोष लड़कियों को मानसिक और सामाजिक यातना दी जाती है।
अंधविश्वास की पराकाष्ठा: लड़कियों को बिना कपड़ों के घुमाना
मीडिया रिपोर्ट्स और स्थानीय जानकारियों के अनुसार बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी परंपरा निभाई जाती है जहां बारिश नहीं होने पर छोटी बच्चियों और किशोरियों को रात के समय निर्वस्त्र कर खेतों में घुमाया जाता है। इन लड़कियों के माता-पिता स्वयं उन्हें इस शर्मनाक कार्य के लिए बाहर भेजते हैं, यह मानकर कि इससे बारिश के देवता प्रसन्न होंगे और मेघ वर्षा करेंगे।
इन गांवों में यह अंधविश्वास सालों से चला आ रहा है और इसे परंपरा का नाम दिया गया है। गांव वाले इसे पवित्र कार्य मानते हैं, लेकिन यह सोच इस बात को नजरअंदाज कर देती है कि यह एक तरह की सामाजिक हिंसा है – विशेषकर मासूम बच्चियों के खिलाफ।
न विज्ञान से जुड़ा, न आस्था से
यह जानना जरूरी है कि इन परंपराओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। मौसम परिवर्तन, सूखा, बारिश न होना – ये सभी पर्यावरणीय, भौगोलिक और जलवायु चक्र से जुड़े विषय हैं, जिनका समाधान विज्ञान और सतत विकास में है, न कि निर्दोष बच्चियों को निर्वस्त्र कर खेतों में घुमाने में।
ऐसी प्रथाएं न सिर्फ महिला अधिकारों का हनन करती हैं, बल्कि पूरे समाज की सोच पर भी सवाल खड़े करती हैं। क्या एक सभ्य समाज में ऐसी परंपराओं को चलन में बने रहना चाहिए?
समाज को जागरूक करने की आवश्यकता
भारत जैसे देश में जहां हम चंद्रयान और डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, वहां आज भी ऐसी प्रथाएं हमारी सामाजिक प्रगति को रोकती हैं। यह जरूरी है कि सरकार, सामाजिक संगठनों और मीडिया को मिलकर ऐसे अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।
स्कूलों, पंचायतों और ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम चलाकर लोगों को समझाना होगा कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए विज्ञान और तकनीक ही समाधान हैं, न कि लड़कियों की इज्जत से खिलवाड़।
📌 निष्कर्ष
परंपरा और आस्था का स्थान हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन जब परंपराएं किसी की गरिमा और अधिकारों को ठेस पहुंचाने लगें, तो उन्हें बदलने की आवश्यकता होती है। बारिश लाने के लिए लड़कियों को निर्वस्त्र करना न केवल एक कुप्रथा है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की आत्मा के खिलाफ भी है। ऐसे अंधविश्वासों से बाहर निकलकर हमें एक विज्ञान-सम्मत, समानता आधारित और जागरूक समाज की ओर बढ़ना चाहिए।