अकबर और अंग्रेजों ने की थी इस मंदिर में ज्वाला बुझाने की कोशिश, लेकिन रहे थे नाकाम, जानें क्या है इसका रहस्य?

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित ज्वाला देवी मंदिर एक चमत्कारी और रहस्यमयी स्थान माना जाता है। इस मंदिर को जोता वाली मां और नगरकोट का मंदिर भी कहा जाता है। अन्य देवी मंदिरों के विपरीत, यहां किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि धरती के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा की जाती है। यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है और नवरात्रि के दौरान यहां भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। इतिहास में कई बार इस मंदिर की ज्वालाओं को बुझाने की कोशिश की गई, लेकिन कोई सफल नहीं हो सका। न ही वैज्ञानिक आज तक इस रहस्य को सुलझा पाए हैं।
ज्वाला देवी मंदिर का इतिहास और मान्यता
1. पौराणिक मान्यताएँ
ज्वालामुखी देवी का यह मंदिर हिन्दू आस्था में विशेष स्थान रखता है। इसे माता के प्रमुख शक्तिपीठों में गिना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि देवी सती की जीभ इसी स्थान पर गिरी थी। इस मंदिर की खोज का श्रेय पांडवों को जाता है, जिन्होंने महाभारत काल में इसकी स्थापना की थी।
2. अंग्रेजों और अकबर की असफल कोशिशें
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने इस मंदिर की रहस्यमयी ज्वालाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करने और इसका व्यावसायिक उपयोग करने की कोशिश की, लेकिन वे असफल रहे। इससे पहले, मुगल सम्राट अकबर ने इस ज्वाला को बुझाने का प्रयास किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि मंदिर में जल रही लपटों पर पानी डालकर उन्हें बुझाया जाए। लाख कोशिशों के बावजूद वे इस अलौकिक अग्नि को बुझाने में नाकाम रहे।
3. देवी माँ की महिमा से प्रभावित अकबर
जब अकबर ने देखा कि उसकी तमाम कोशिशें नाकाम हो गई हैं, तो उसने देवी माँ की शक्ति को स्वीकार कर लिया। सम्मान स्वरूप उसने 50 किलो वजन का सोने का छत्र माता को भेंट किया। लेकिन यह भी एक चमत्कार था कि माता ने इसे स्वीकार नहीं किया और वह छत्र किसी अन्य धातु में परिवर्तित हो गया। आज भी यह छत्र मंदिर में रखा हुआ है, जिसे देखने के लिए हजारों श्रद्धालु यहां आते हैं।
4. रहस्यमयी नौ ज्वालाएँ
यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहां किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि धरती के गर्भ से 9 अलग-अलग स्थानों से निकल रही अग्नि ज्वालाओं की पूजा होती है। इन 9 ज्योतियों को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। मंदिर का प्रारंभिक निर्माण राजा भूमि चंद ने करवाया था, और बाद में 1835 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और हिमाचल के राजा संसार चंद ने इसे पूर्ण रूप दिया।
वैज्ञानिक और धार्मिक दृष्टिकोण
विज्ञान आज तक इस रहस्य को सुलझा नहीं पाया है कि यह ज्वालाएँ कैसे जल रही हैं। भूगर्भशास्त्रियों ने इस क्षेत्र में वर्षों तक शोध किया, लेकिन वे भी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। यह मंदिर एक दिव्य चमत्कार का प्रतीक है, जो आस्था और विज्ञान दोनों के लिए एक गूढ़ पहेली बना हुआ है।