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लड़की पर रंग डाला तो करनी पड़ती है शादी, जानिए कहां निभाई जाती है ऐसी अजीबोगरीब रस्म

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भारत में होली का त्यौहार सिर्फ रंगों का नहीं, बल्कि आपसी प्रेम, भाईचारे और खुशियों का पर्व माना जाता है। लेकिन इस रंगों के त्यौहार में कई जगहों पर ऐसी परंपराएं और रीति-रिवाज निभाए जाते हैं, जिनके बारे में जानकर हर कोई हैरान रह जाता है।आज हम आपको भारत के झारखंड और पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में मनाई जाने वाली संथाल आदिवासी समुदाय की होली की एक बेहद अनोखी और रोचक परंपरा के बारे में बताएंगे, जिसमें सिर्फ रंग लगाने भर से शादी का बंधन बंध जाता है।

क्या है इस अनोखी परंपरा की कहानी?

भारत के झारखंड राज्य, विशेष रूप से पश्चिमी सिंहभूम, और पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जैसे क्षेत्रों में निवास करने वाला संथाल आदिवासी समुदाय अपनी अलग संस्कृति और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है।
इनकी होली खेलने की पद्धति आम भारतीय समाज से बिल्कुल अलग है। यहां कुंवारी लड़कियों और विवाहित महिलाओं पर रंग लगाने को लेकर सख्त नियम बनाए गए हैं।
अगर कोई पुरुष होली के दिन किसी कुंवारी लड़की पर रंग लगा देता है, तो उस पुरुष को समाज के नियम अनुसार उस लड़की से शादी करनी पड़ती है

रंग से बंधन तक: कैसे होता है विवाह का फैसला?

संथाल समाज में अगर कोई युवक जान-बूझकर या गलती से किसी लड़की पर रंग डाल देता है, तो यह समझा जाता है कि युवक उस लड़की से प्रेम करता है
ऐसे में समुदाय की पंचायत बैठती है और तुरंत शादी का प्रस्ताव रख देती है।
अगर लड़की सहमति देती है, तो विधिवत रीति-रिवाज से शादी संपन्न कर दी जाती है।
लेकिन यदि लड़की इंकार कर देती है, तो मामला और पेचीदा हो जाता है।

लड़की के इंकार का अंजाम क्या होता है?

यदि लड़की युवक से शादी करने से मना कर देती है, तब भी युवक को खाली हाथ नहीं लौटने दिया जाता।
संथाल आदिवासी परंपरा के अनुसार, उस युवक की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा लड़की के नाम कर दिया जाता है। इसे समुदाय में दहेज अपराध की सजा कहा जाता है।
यह नियम इतना कड़ा और अनुशासनात्मक है कि कोई भी युवक बिना सोचे-समझे किसी लड़की पर रंग डालने की हिम्मत नहीं करता

होली का पर्व लेकिन नियमों की सख्ती

संथाल समुदाय में होली के दौरान उत्सव और आनंद तो होता है, लेकिन इसके साथ-साथ कई सख्त सामाजिक नियम भी लागू होते हैं।
होली के दिन केवल वही पुरुष किसी महिला या कुंवारी लड़की को रंग लगा सकते हैं जो उसके रिश्तेदार, पति, या परिवार के सदस्य हों।
सामान्य पुरुषों के लिए यह सख्त वर्जित है।
यही कारण है कि इन क्षेत्रों में होली का खेल अत्यधिक अनुशासित और मर्यादित होता है।

पश्चिम बंगाल में भी यह परंपरा

यह अनोखी परंपरा सिर्फ झारखंड तक ही सीमित नहीं है।
पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी, बीरभूम, और बांकुरा जिलों में भी संथाल आदिवासी समुदाय के बीच इसी तरह के नियम और प्रथाएं प्रचलित हैं।
यहां के संथाल आदिवासी अपनी संस्कृति और परंपरागत सामाजिक ढांचे को बहुत गंभीरता से निभाते हैं
कहा जाता है कि इन नियमों को तोड़ना समाज में बड़ा अपराध माना जाता है।

परंपरा का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

संथाल समुदाय के बुजुर्गों का मानना है कि इस परंपरा का उद्देश्य महिलाओं की मर्यादा और सम्मान की रक्षा करना है।
इन नियमों से महिलाओं को सुरक्षा मिलती है और पुरुषों में जिम्मेदारी का भाव विकसित होता है।
संथाल समाज में प्यार और विवाह के संबंधों को लेकर हमेशा से ही साफ-सुथरे और पारदर्शी नियम रहे हैं।
इस परंपरा ने जहां एक ओर कई प्रेम कहानियों को अंजाम दिया है, वहीं दूसरी ओर समाज में अनुशासन और सम्मान की भावना को भी बनाए रखा है।

क्या बदल रहा है समय के साथ?

हालांकि समय के साथ आधुनिक शिक्षा, कानून, और नए सामाजिक बदलावों का असर इस परंपरा पर भी पड़ रहा है।
आज की नवयुवक पीढ़ी इन नियमों और परंपराओं को लेकर मिश्रित राय रखती है।
कुछ लोग इसे पुरानी मानसिकता का उदाहरण मानते हैं, तो कुछ इसे संस्कृति और परंपरा की पहचान बताते हैं।
फिर भी, इस समाज में होली आज भी मर्यादा और अनुशासन के साथ ही मनाई जाती है।

निष्कर्ष: परंपरा और प्रेम का रंग

भारत के विभिन्न हिस्सों में होली की अलग-अलग परंपराएं हमें यह सिखाती हैं कि हमारे समाज में संस्कृति, परंपरा और समाज व्यवस्था का कितना गहरा प्रभाव होता है।
संथाल आदिवासी समाज की यह अनोखी होली परंपरा जहां एक ओर आश्चर्यचकित करती है, वहीं यह यह भी दर्शाती है कि कैसे समाज के नियम लोगों के जीवन में अनुशासन और जिम्मेदारी लाते हैं।
होली का त्यौहार केवल रंगों का नहीं, बल्कि रिश्तों और जिम्मेदारियों का भी प्रतीक है।
और शायद यही वजह है कि भारत में हर त्यौहार अपनी विविधता और परंपराओं के साथ खास बन जाता है।

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