मथुरा में अकबर का शासन: जब पीरजादी बनीं कृष्णभक्त और राजस्व वसूली बनी सख्ती का प्रतीक
भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का प्रमुख केंद्र, मुग़ल काल में भी अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता रहा है। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में मथुरा को न केवल प्रशासनिक दृष्टिकोण से अहम माना गया, बल्कि यहां की धार्मिक-सांस्कृतिक भूमि पर भी प्रभावी गतिविधियां देखने को मिलीं। खासकर तब, जब अकबर ने यहां राजस्व वसूली के लिए अलीखान नामक अधिकारी की नियुक्ति की।
अलीखान को मथुरा में बतौर राजस्व अधिकारी नियुक्त किया गया था। यह नियुक्ति अकबर की उस नीति का हिस्सा थी जिसमें उसने अपने राज्य के विभिन्न हिस्सों में सशक्त और निष्ठावान अधिकारियों की तैनाती कर मजबूत प्रशासन की नींव रखी थी। अलीखान को यह दायित्व सौंपा गया कि वह मथुरा क्षेत्र से राजस्व की प्रभावी वसूली सुनिश्चित करें और शासन की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करें।
इतिहासकारों के अनुसार, अलीखान ने इस दायित्व को बड़ी सख्ती से निभाया। उस समय मथुरा से कुल 11,55,807 दाम की राजस्व वसूली की गई थी, जो अपने आप में एक बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी। यह वसूली इतनी सख्ती से की गई थी कि आम जनमानस पर इसका असर स्पष्ट रूप से देखा गया। किसान, व्यापारी और स्थानीय नागरिक अकबर के इस सख्त कर वसूली अभियान से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
हालांकि, इस सख्त प्रशासकीय दृष्टिकोण के समानांतर एक मानवीय और आध्यात्मिक पहलू भी जुड़ा हुआ था। अलीखान की पुत्री, जिन्हें 'पीरजादी' के नाम से जाना जाता था, उस दौर में एक विशेष पहचान रखती थीं। आश्चर्यजनक रूप से पीरजादी कृष्णभक्त थीं। इस्लामिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद उनका झुकाव भगवान श्रीकृष्ण के प्रति था, और वे भक्ति भावना से ओतप्रोत थीं। यह अपने आप में उस समय के लिए एक असामान्य लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
पीरजादी की कृष्णभक्ति यह दर्शाती है कि मुगल शासन के दौरान धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न संप्रदायों के बीच आध्यात्मिक मेल-जोल भी मौजूद था। अकबर स्वयं भी 'सुलह-ए-कुल' यानी सभी धर्मों के प्रति समभाव की नीति के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, और पीरजादी का यह उदाहरण उस नीति की एक मजबूत कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
इस प्रकार मथुरा का यह ऐतिहासिक प्रसंग हमें एक साथ दो विरोधाभासी लेकिन महत्वपूर्ण पहलुओं से रूबरू कराता है — एक ओर सख्त राजस्व वसूली और दूसरी ओर धार्मिक भक्ति और सहिष्णुता की अनोखी मिसाल। आज भी इतिहास के पन्नों में यह घटना मथुरा के उस कालखंड की राजनीतिक और सांस्कृतिक जटिलताओं को उजागर करती है।

